खुद को मिटाती रही
212 212 212 212
बहर – लाल ला लालला, ला लला ला लला।
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काफ़िया आती (ई) रदीफ़ रही
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चैन अपना सदा वो लुटाती रही।
दर्द अपना सभी से छुपाती रही।
छोड़ बाबुल का’ घर आई’ जबसे यहां।
घर के’ खातिर वो’ खुद को मिटाती रही।
मान सम्मान ससुराल का कम न हो।
इसलिये देवता वो मनाती रही।
भूल खुद को गई पति की सेवा में जो।
बाल बच्चो को बातें सिखाती रही।
हाथ को तुम मेरे यूँ पकड़ कर चले।
दूरियां खुद ब खुद पास आती रही।
आंच भी आ न पाए कभी सोच यह।
दायरे लाज के खुद हटाती रही।
मन्नते मांगने की कुई हद नहीं।
देवता “मधु” वजह आजमाती रही।
कलम घिसाई