खुद को बदलने की कशमकश
अक्सर
और आदतन,
निद्रा के आगोश में
जाने से पहले,
ले बैठती हूँ…
दिनभर के
लेखे – जोखे की किताब !
पर हरदम ही…
दुनियादारी के मापदण्डों पर,
खुद को अधूरा पाती हूँ !
सच बोलने की वजह से,
अव्यवहारिक कहलाती हूँ !
दूजों की खुशियों की खातिर,
खुद को ही भूल जाती हूँ !
फिर खुद को…
बदलने का संकल्प,
मन ही मन दोहराती हूँ !
इक नये वादे संग… फिर मैं,
निद्रामग्न हो जाती हूँ !
सुबह होते जब खोलती हूँ आँखें
जिंदगी की कशमकश में
खुद को …
पहले जैसी ही पाती हूँ
चाह कर भी…
आज भी मैं
खुद को बदल न पाती हूँ ! !
अंजु गुप्ता