खुद को चिठ्ठी भेजते रहता हूँ
अब कोई नहीं लिखता खत मुझे
इसलिए खुद ही डाकखाने जाकर
खुद को चिठ्ठी भेजते रहता हूँ
डाकिया बार बार ले आता है चिठ्ठियाँ
और पूछता है हाल मेरा, मैं उसका।
क्या मालूम डाकिये को,
किस बात की बख्शीश उसे दिया करता हूँ
तकरीबन रोज भेजता हूँ चिठ्ठी अपने नाम
जिसे अगली रोज वो ले आया करता है।
कभी मेरे नाम, मेरा ही खत गुम हो जाए
तो पूछता हूँ कि,
भाई डाक बाबू!
अपने एक और चाहने वाले का
खत आना था,नहीं आया,
बात क्या होगी,फिक्र लगी है
वो मुझे ढाँढस बंधा देता है
और मैं डाकिये को बख्शीश दे देता हूँ
इस तरह मुझे आभास बना रहता है
कि खूब फिक्रमंद हैं मेरे लिए अजीज
और मैं अपने चाहने वालों के संपर्क में हूँ
डाकिए का रोज मुहल्ले में आना
मेरे सामाजिक कद को ऊँचा किये है
पड़ोसियों की चिठ्ठियों का पता नहीं मुझे
किसी को दो-चार,
किसी को बिल्कुल नहीं आती होंगी
मैं तन्हा जरूर हूँ, लेकिन
उन पड़ोसियों से बकायद बेहतर हूँ
इंतजार में बैठे जिन्हें, कभी चिठ्ठी नहीं आती
ईमेल डिजिटल मेसेज के आधुनिक युग में
अपनों की गिनती बनाये रखता हूं
खूब चाहने वालों से घिरा रहता हूँ
खुद ही रोज डाकघर जाकर
खुद को चिठ्ठी भेजते रहता हूँ।
– श्रीधर