खुद को अब समझाऊंगा !
खुद को अब समझाऊंगा
प्रेम नहीं आकर्षण ‘सखे’
और भाव, सब मेरा माया है
कहने को तो कह गए हो तुम,
मन को मेरे कहां समझाया है।
रात के अंतिम प्रहर से पहले
दूर ‘सखे’ कहीं टल जाऊंगा
खुद को अब इस तरह समझाऊंगा।
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तरुवर के शाखों में सखे
कल फिर नए घोसले होंगे,
नए कोपलों के बीचों में
नवागंतुक कुछ तो बोलते होंगे
कुछ मधम से राज खोलते होंगे,
चिरैया के चहकने से पहले
इस बस्ती से मैं हट जाऊंगा,
खुद को अब मैं समझाऊंगा ।
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रक्तिम आभा जो मन की है
कैसे मांगू मैं तुम से प्रेम सखे,
कि बिमुख हुए हो जब से तुम
अब खुद के भी हम नहीं रहे,
सूरज के उगने से पहले
देहरी से मैं उठ जाऊंगा
खुद को अब मैं समझाऊंगा ।
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मन की दुविधाओं में पुर्दिल
कहीं भटक न जाना तुम,
प्रेम भोर कि पहली किरण है
कहीं इसे भूल न जाना तुम,
जीवन के हर दुख-सुख में
अंतस में मुझे ही पाना तुम,
जब दुख के बादल घिरने लगे
बढ़ कर पग को तेरे धरने लगे,
समय के उस छन के एक कोने से
एक आवाज देकर मुझे बुलाना तुम,
मन की दुविधाओं में पुर्दिल
मुझे कहीं भूल न जाना तुम ।
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08-05-2019
… सिद्धार्थ…