खुद की कविता बन जाऊं
कलम हो नए, डायरी नई
नये वर्ष की नयी सुबह हो
कुछ लिखूं?
क्या लिखूं?
लिखूं क्यूं न ऐसा कि
राह बनू भटके अपनों की
टूटे सपनों के टुकड़े बन,
बनू तो ख़ामोश जुबां के शब्द बनूं
लिखूं क्यूं न कुछ ऐसा कि
मुग्ध हो जाए दुनिया सारी,
आस कुछ ऐसा बन जाऊं
दिलों पे सबके राज करूं
लिखूं क्यूं न कुछ ऐसा कि
खुद की कविता बन जाऊं
सबके दिलों को जोड़ सकूं
जंग लगे ताले को तोड़ सकूं
लिखूं क्यूं न ऐसा कि
हर दिलों को रोशन कर जाऊं
निर्बल का मान बचा पाऊं
बचा पाऊं निर्धन की जान
लिखूं क्यूं न ऐसा कि
हर दिलों को फिर से छू जाऊं
खुद अनंत कविता में बंध जाऊं
लिखूं न फिर ऐसा की
खुद की कविता बन जाऊं