खुदीराम बोस की शहादत का अपमान
भारतीय क्रान्तिकारी आयरिश वीर टेरेन्श मैकस्विनी जिन्होंने अंगे्रजी हुकूमत के खिलाफ 72 दिन अनशन कर अपने प्राणों की आहुति दी, ने लिखा, ‘‘कोई भी व्यक्ति जो कहता है कि सशस्त्र विरोध असामयिक, अपरिणामदर्शी तथा खतरनाक है तो वह इस योग्य है कि उसका तिरस्कार किया जाये तथा उस पर थूक दिया जाये, क्योंकि किसी न किसी के द्वारा कहीं न कहीं, किसी न किसी तरह विरोध शुरू होगी ही। और वह पहला विरोध हमेशा असामयिक, अपरिणामकारी तथा खतरनाक प्रतीत होगा ही।’’
किसी भी प्रकार के परिणाम-दुष्परिणाम की चिन्ता न करने वाले क्रान्तिकारियों की लम्बी सूची में एक 17 वर्ष का बालक खुदीराम बोस भी अंगेजों की अनीति और अन्याय के विरूद्ध ऐसे समय में राष्ट्रप्रेम की भावना से भर उठा जब एक अंग्रेज न्यायाधीश किंग्सफ़ोर्ड चुन-चुन कर देशभक्तों को कठोर दण्ड की सजा सुना रहा था या फांसी पर चढ़ा रहा था।
खुदीराम बोस और उसके युवा साथी प्रफुल्ल कुमार चाकी ने क्रूर और निर्मोही जज को सबक सिखाने की गरज से 30 अप्रैल 1908 की रात के आठ बजे रँगरेलियाँ मनाकर मुजफ्फरनगर के क्लब से बाहर आते जज किंग्सफ़ोर्ड को चारों ओर से ढकी गाड़ी में बैठा समझकर, उस गाड़ी को निशाना बनाकर बम फैंक दिया। दुर्भाग्यवश वे जिसे मारना चाहते थे, वह उस गाड़ी में नहीं था। उसके स्थान पर दो अंग्रेज रमणियाँ श्रीमती केनेडी और एक कुमारी केनेडी वहीं ढेर हो गयीं।
बम फैंककर खुदीराम बोस वहाँ से भाग निकले। वे लगातार भागते रहे और पच्चीस मील की दूरी तय कर ‘वैनी’ नामक स्थान पर जा पहुँचे। सवेरा हो चुका था। भूख उन्हें बेहाल कर रही थी। वे परेशान हालत में एक बनिये की दुकान पर चने खरीदने लगे। वहाँ आपसी चर्चा से पता चला कि कुछ अज्ञात लोगों ने मुज्जफ्फर नगर में जिस गाड़ी पर बम फैंका था, उस हमले में दो अंगे्रज मेमें मारी गयी हैं। यह सुनकर खुदीराम के मन में एक पश्चाताप की लहर ऐसी उठी कि उनके मुँह से चीख निकल गयी। लोगों को खुदीराम के अस्तव्यस्त बालों, चेहरे पर उड़ती हवाइयों और चीख से यह समझने में देर न लगी कि यही बालक उन दो मेमों का हत्यारा है। फिर क्या था, भीड़ उन्हें पकड़ने के लिये अत्यंत तेजी के साथ उनकी ओर लपकी। उस भीड़ में ऐसे अनेक देशद्रोही भी थे, जो प्रलोभन के कारण अंगे्रजों के कादर बने हुए थे। इन लोगों की क्रान्तिकारियों के प्रति कोई भी सहानभूति न थी। भले ही उस वक्त खुदीराम बोस के पास गोलियों से भरा हुआ रिवाल्वर था किन्तु उसका इस्तेमाल उन्होंने अपने भाइयों के खिलाफ नहीं किया। परन्तु वे भीड़ के सम्मुख आत्मसमर्पण भी नहीं करना चाहते थे, इसलिये वे पूरा दम लगाकर दौड़ने लगे। उनके पीछे-पीछे भीड़ ने भी दौड़ना शुरू किया। यह बड़ा अजीब दृश्य था कि जिन लोगों की आजादी के लिए खुदीराम बोस ने जान की बाजी लगायी थी, वही उनको पकड़कर जल्लादों को सौंपने जा रहे थे।
साम्राज्यवाद के अगणित भाड़े के गुण्डों के आगे यह नन्हा सा बालक आखिर कब तक संघर्ष करता रहता? अन्त में खुदीराम पकड़ लिये गये और उन्हें पुलिस को सौंप दिया गया। बोस को पकड़वाने में जनता के वे लोग भी थे, जो अंगे्रजों से भारी घृणा करते थे किन्तु नासमझी के कारण इस घृणित कार्य में शरीक हो गये थे।
जब खदीराम बोस को लम्बा न्याय का नाटक और बाद में फांसी की सजा सुनाकर बलिवेदी पर चढ़ाने के बाद चिता पर रखा गया, तब तक जनता यह जान चुकी थी कि यह घुँघराले बालों, बड़ी-बड़ी आखों वाला किशोर कोई हत्यारा नहीं बल्कि देश पर मर-मिटने वाला क्रान्तिकारी है, जिसे नासमझी में लोगों ने पकड़वाकर अत्याचारी अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया था तो वही जनता भारी ग्लानि और पश्चाताप से भर उठी।
चिता जलने के बाद खुदीराम बोस की देह भस्मीभूत हो गयी तो वही जनता अपने प्यारे शहीद की राख के लिये उमड़ पड़ी। किसी ने राख से ताबीज बनवाया, किसी ने से सर पर मला। अनेक स्त्रियों ने अपने स्तनों पर इसी राख को मलकर ऐसे ही पूत को अपनी कोख से जन्म देने की परमात्मा से प्रार्थना की। वे सभी एक सच्चे शहीद के आगे श्रद्धानत हो गये।
अपनी ‘भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन और राष्ट्रीय विकास’ नामक पुस्तक की पृ़.सं. 129 पर काकोरी कांड के नायक मन्मनाथ लिखते हैं कि खुदीराम बोस की धधकती चिता के चारों ओर एक विराट जन समुदाय था, जिनके मन में अब अहिंसा के लिये कोई जगह नहीं थी। क्रान्तिकारी की भावना से ओतप्रोत ये लोग जी खोलकर अपने इस प्यारे शहीद का अभिनंदन कर रहे थे।
भारत के स्वतंत्र होने पर उस चिता के स्थान पर खुदीराम की स्मृति में एक स्मारक भी बनाया गया। यद्यपि बिहार के सभी नेताओ ने इस स्मारक की स्थापना में भाग लिया, पर पं. जवाहर लाल नेहरू ने इसमें भाग लेने से इन्कार कर दिया।’’
सुभाषचन्द्र बोस का तलवार लेकर सामना करने वाले, सरदार भगत सिंह को फांसी चढ़ाने का प्रस्ताव पारित कराने वाले, चन्द्रशेखर आजाद को आंतकवादी कहने वालों की यह कैसी राष्ट्रप्रेम की भावना थी कि जो राष्ट्र-रक्षा और आजादी की खातिर अपने प्राणों की बाजी लगा रहे थे, उन्हें श्रद्धा से देखने के बजाय घृणा और तिरस्कार भरी नजर से देखती है।
आजादी से पूर्व और आजादी के बाद यही तो सत्ता का वह दुहरा चरित्र है जिसमें कांग्रेस आजादी का सारा श्रेय खुद बटोर लेना चाहती है और आजाद भारत में भ्रष्टाचारियों, कालेधन के चोरों के खिलाफ अनशन कर रहे बाबा रामदेव और उनके साथियों पर रात के डेढ़ बजे लाठियाँ और बमों से प्रहार करती है। ए. राजा, कलमाड़ी, कनमोड़ी, शीला दीक्षित के काले कारनामों को संविधान के विरूद्ध या संविधान की धाज्जियाँ उड़ाने वाला नहीं मानती है, जबकि ‘लोकपाल’ के लिए हुए अहिंसात्मक आंदोलन को ‘तानाशाही’, ‘संविधान को चुनौती देने वाला’ मानकर उसका मजाक बनाती है और आंदोलन को कुचलने के लिये तत्पर होती है।
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