खिड़की
एक दूर अकेले मकान में..
एक खिड़की है सुनसान में..
कई दिनों से खुली नहीं..
धूल जमी है किनारों पर..
कई सदियों से वो धुली नहीं..
मैं हर रोज देखता हूँ..
धूल हर रोज कुछ और चढ़ रही..
मन की प्यास रोज कुछ बढ़ रही..
शायद कोई चीख है..
या जिंदगी की कोई सीख है..
या घुटन के साये में..
कोई दीप चुपचाप धुआँ हुआ..
कोई अब खटखटाता नहीं..
कोई भिक्षुक भी अब आता नहीं..
एक जोगी कभी आया था..
दूर से ही चिल्लाया था..
उसके शब्दों की गूंजती पदचाप है..
धूल की परत पर..
उसके हाथों की बेबस छाप है..
शायद उसे कुछ मिला था..
या उसी की आकांक्षा ने..
सर्वस्व उसका ठगा था..
या फिर खिड़की के पीछे..
सदियों से आँखे मींचे..
वैरागी कोई ध्यानमग्न..
या फिर कोई उलझन..
पर ये खिड़की शास्वत है..