खिलौना
*************** खिलौना *************
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आजकल की जिन्दगी बन गई है एक खिलौना,
आदमी धरती पर हो गया दो दिन का बिछौना।
रिश्तों की कीमतें हर रोज घटती ही जा रहीं हैं,
कभी खत्म नहीं होता है खुद का ही रोना धोना।
किससे भला हम पूछें और हम किसको बताएँ,
वक्त किसी के लिए दो पल का भी नहीं होना।
फसलें और नस्लें दोनों ही बिगड़ती जा रहीं हैं,
बिता हुआ समय किसी हाथ नही कभी आना।
कुछ भी नहीं भरोसा जग में जीने का है यहाँ,
पानी के बुलबले सा है जीवन का ये नजराना।
खिलौनों ने बच्चों का मष्तिष्क खा लिया है,
माताओं ने छोड़ दिया है घुट कर सीने लगाना।
मनसीरत की नसीहतों का कोई असर न रहा,
आशीषों ने कब का छोड़ा है संग साथ निभाना।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)