खिलता हुआ इक गुलाब
तू फ़लक का शबाब लगता है।
तेरा चेहरा इक किताब लगता है।
तिश्नगी है तुझी को पाने की
इफ़्फ़त ए आफ़ताब लगता है।
चाहता हूँ करूं परस्तिश तेरी
क़ल्ब तेरा माहताब लगता है।
ये तसव्वुर तेरे जाज़िब रुख का
आब-ए-आईना जनाब लगता है।
तू किसी ख़ुशनुमा ख़ियाबाँ का
खिलता हुआ इक गुलाब लगता है।
आस है तू मुझे मिलेगा कहीं
आज तू महज़ इक ख़्वाब लगता है।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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