खिड़कियाँ — कुछ खुलीं हैं अब भी – कुछ बरसों से बंद हैं
जिंदगी ग़र एक घर है
रिश्ते हैं खिड़कियाँ
कुछ खुलीं हैं अब भी
कुछ बरसों से बंद हैं
कुछ की लकड़ियाँ हैं पुरानी
कुछ हैं अभी नयीं
कुछ चरमरा रहीं हैं
कुछ के तो अब
चौखट भी नहीं हैं
कुछ में जाले लगे पड़े हैं
कुछ में घास उग गयी है
शुक्र है बाहर से दिखता
नहीं यूँ ही है
शुक्र है खिड़कियों पर उगे वो
घास का है जो पर्दा
घर का हर दर्द ढके हुए है