खामोशियों की वफ़ाओं ने मुझे, गहराई में खुद से उतारा है।
खामोशियों की वफ़ाओं ने मुझे, गहराई में खुद के उतारा है,
पर शब्द आज भी मेरे बिखरे पड़े हैं, आवाजों की चाहत में।
बेमतलब के सफ़र से, साँसों की उल्फ़त गहरी है,
और कदम आज भी ठहरे खड़े हैं, मंजिलों की आहट में।
शिकायतें जमाने से होतीं तो, मसला बड़ा नहीं था,
पर मेरे शिकवे तो खफा बैठे हैं, मेरी हीं ग़ुरबत में।
चाँद तो आज भी, एक सा रिश्ता रात से निभाता है,
बस ये अमावस है जो सजदे करता है, मेरी हीं किस्मत में।
गर होती चोरियां, तो ज़हन भी समझ पाता क्या है,
पर ये चैन तो अपना, खुद हीं लुटा आयी हूँ मैं पहली फुर्सत में।
ये बारिशें भी कहाँ, मेरी छत को छोड़ कर बरसती हैं,
पर एक आग तो खुद हीं लगा रखी है, मैंने अपनी राहत में।
ख़्वाब तो आज भी बिन कहे हीं, आँखों में उतर आता है,
पर ये पाबंदियां तो मैंने हीं लगा रखी हैं, नींदों की शिरकत में।
बेवजह से शिकायतों में खर्च हो रही है, ये नादाँ सी ज़िन्दगी,
पता तो था इश्क़ को आदत है, भटकने की अधूरी हकीकत में।