खामोशियाँ
खामोशियां
लिपटी रहती खामोशियां
इस क़दर चारों ओर
कोई और न सुन पाता
बस मैं ही सुनती इनका शोर
कहती मुझसे चुपके से
कुछ अनकहे से राज़
बंद लबों की बातों को
बयाँ कर जाती बिन अल्फाज़
मोहताज नहीं किसी आवाज़ की
न चाहिए इसे कोई जुबाँ
ये तो बस एहसास है
जो दिल से उठता बन धुआँ
चुभती है दामन में
ये बर्फ़-आलूदा खामोशियां
बेक़रार है पिघलने को
जो कुछ था तेरे मेरे दरमियाँ
रेखा
कोलकाता