खाँसी
खाँसी
वास्तव में
खाँसी नहीं है,
प्रतीपगमन है
भावनाओं का ।
यानि – सिर्फ़
आगे बढ़ना ,
या सिर्फ़
पीछे मुड़ना ।
खाँसी,खाँसी नहीं
प्रकार है , जैसे-
मेरी खाँसी या
उनकी खाँसी ।
लेकिन-
उनकी खाँसी,
खाँसी नहीं,
संकेत है,किसी
बलबे का,या
किसी झगड़े का ।
वो जब खाँसते हैं,
तो चौकन्ना
हो जाता है मीडिया ।
अख़वार
प्रथम पृष्ठ का
अर्द्धभाग
सुरक्षित रखता है,
उनकी खाँसी को
दर्ज़ा देने
साहित्य का ।
वो देखो !
ज़रा गौर से देखो !!
उस महिला के
रंगीन वस्त्र ,
श्वेत हो गए हैं,
यक-ब-यक ,
उनके खाँसने के बाद ।
लेकिन-
मेरी खाँसी,
मेरी खाँसी महज़
खाँसी ही है , जो
उदर के
वक्राकार मार्ग में
सरल रेखा बनाती हुई
मुँह से निकलकर
आकाश की ओर
द्वंद्वयुक्त किन्तु
स्वच्छंद , चली जाती है ,
चली जाती है,
अपने सूरज
की तलाश़ में ।
-ईश्वर दयाल गोस्वामी।
कवि एवं शिक्षक।