ख़्वाहिशें
ख़्वाहिशें
ख़्वाहिशें बड़ी अजीब होती है हुज़ूर
बेपरवाह, ज़िद्दी,हठ से भरपूर
रोज़ चली आती है,कैसा फ़ितूर
नामुमकिन उतरना इनका सूरूर
नए रूप लेकर आती नित
कभी बिन बुलाए कभी आमंत्रित
अरमानों की नगरी कर संचित
हिचकोले खाती कर मन मुदित
आधी अधूरी को तराश
पूरी होने की अभिलाष
कर ख़ुद पर विश्वास
चूमना चाहती आकाश
बिना पंख उड़ान भरती
फ़रमाइशों के मायाजाल बुनती
ख़ुद ही फँसती उलझती
चाहतों की नाज़ुक डोर चटकती
फ़ितरत इसकी क्या करें बयान
ख़्वाबों की बिखरती दास्तान
फिर भी हर पल देने इम्तहान
खड़ी हो उठती कस के कमान
हार या जीत का अंजाना सफ़र
तय करती बेसुध , बेख़बर
मुकम्मल हो मंज़िले या दरबदर
ख़्वाहिशें छोड़ जाती अपना असर
रेखा