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29 May 2024 · 1 min read

ख़्वाब और उम्मीदें

कुछ ख़्वाब हैं कुछ उम्मीदें
अलगनी पर लटकी
आधी सोई सी
कुछ टूट के बिखर गईं
कुछ तार पर सूखती
धुले कपड़ों सी
पहने जाने के इंतिज़ार में
हर ख़्वाब हर उम्मीद
होना चाहती है मुकम्मल
पर बहुत कम को मयस्सर
हो पाती है
पनपने के लिए उपजाऊ ज़मीं
जहाँ हर ख़्वाब हर उम्मीद
आसमां छू सके…

©️कंचन”अद्वैता”

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