ख़्वाब और उम्मीदें
कुछ ख़्वाब हैं कुछ उम्मीदें
अलगनी पर लटकी
आधी सोई सी
कुछ टूट के बिखर गईं
कुछ तार पर सूखती
धुले कपड़ों सी
पहने जाने के इंतिज़ार में
हर ख़्वाब हर उम्मीद
होना चाहती है मुकम्मल
पर बहुत कम को मयस्सर
हो पाती है
पनपने के लिए उपजाऊ ज़मीं
जहाँ हर ख़्वाब हर उम्मीद
आसमां छू सके…
©️कंचन”अद्वैता”