ख़ुदग़र्ज़ हूं मैं
मुझे मालूम है कि मैं बहुत ख़ुदग़र्ज़ हूं।
किसी का बोझ हूं किसी का कर्ज हूं।
इश्क में जलता चिराग़ मत समझो
मोहब्बत ना भले मगर तेरा तो फर्ज हूं।
ना जीत पाया मैं कभी
किंतु विजय का हार हूं।
नौका धारा से पार कराऊं
मैं तो इक पतवार हूं
ना मोहबत में समझना
पागल हूं मर्यादा भूलकर
मैं हरेक वक़्त तेरा हूं राही
अरे मैं तेरा अधिकार हूं।
गर मैं पत्थर का छोटा टुकड़ा
तो मुझे दबा कर सड़क बनाओ।
पत्थर क्या मंजिल बन पाए
मुझको कुचलो तो मंजिल पाओ।
काश मैं पत्थर होता
तुमसे यह कह पाता
बहुत सूकुं पाता है पत्थर
टुकड़े टुकड़े बिखरने पर
जड़ दिया जाता है दीवारों पर
किन्तु बहुत दर्द होता है उसको
इस तरह निखरने पर
पत्थर की ख्वाहिश होती है
दब दब कर मैं सड़क बनाऊं
और जो मुझे चुभा ले तलवा में
मैं उसे मंजिल तक पहुंचाऊं।
काश मैं पत्थर बन पाऊं ।।
दीपक झा रुद्रा