ख़वाब
एक दिन किसी की दस्तक पर
दरवाज़ा खोला, कहा – सुस्वागतम् !
कानों में हौले से आवाज़ गूंजी –
जी शुक्रिया !
पर अगले ही पल
‘गुलज़ार’ की नज़्म की तर्ज़ पर
यूं लगा, मानो ख़्वाब था।
हाँ ख़्वाब ही तो था शायद
जो रात के अंधेरे में,
नींद के आगोश में
चुपके से देता है दस्तक
और सुबह के उजाले में
हो जाता है उड़नछू ।