ख़लिश (कमी)
कोई प्यासा कुवें के पास, कब जाता है यह समझें।
की फनकार जीवन का, लुफ्त उठता है वह समझें।।
हथेली पर यूँ रख कर जान, जरा एक बार तो देखे।
कोई सरहद पर कैसे जा, सर कटवाता है यह समझें।।
मियां तुम कम हो तो जरा, खुद को कमतर ही समझो।
ये क्या कि खुद न खुद होकर, ख़ुदाया कि तरह समझें।
यूँ तो देखे है हमने पय कई, अमूमन हीरे तरासने में,
जो ख़ालिस हो उसे क्यों, एकटका ख़लिश कह समझें।।
कमी उनमे भी निकली जो, सल्तनतें हिन्द होते थे।
बड़प्पन है इसमें जो, खुद के कमियों की शह समझें।।
वह जो खामोश रहते थे, भरी महफ़िल में भी अक्सर।
वो जाते जाते कह जाते, मेरे खूबियों की वजह समझें।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०६/०२/२०१९)