” खरी – खरी “
मेरे खरे पर सब ख़ाक हो जाते हैं
सच सुन के जल कर राख हो जाते हैं ,
अपने कहे को ज्यादातर नकार जाते हैं
सारा झूठ चुटकियोंं में डकार जाते हैं ,
घड़ा मैं बनाती हूँ चिकने वो हो जाते हैं
जब देखो हर बात पर फिसल जाते हैं ,
मेहनत कर – कर के पसीने हम बहाते हैं
वो एलीट और हम कुम्हार कहे जाते हैं ,
वो कद्र हुनर की नही दौलत की करते है
जाते वक्त तो सब ख़ाली हाथ ही रहते हैं ,
धन की लालच में आपस में उलझते हैं
हमारे क़फ़न में जेबें नही होती भूलते हैं ,
माँ – बाप के बुरे कर्म बच्चे ही भुगतते हैं
बच्चों के अच्छे कर्म से माँ – बाप तनते हैं ,
कर्मों को बिसरा सब शान से रहते हैं
द्रव्य को दवा समझने की भूल करते हैं ,
उपर कोई माया का बैंक नही होता है
वहाँ तो बस कर्मों से खाता खुलता है
वहाँ तो बस कर्मों से खाता खुलता है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 10/07/2021 )