खत जो लिखे ही नहीं
खत जो लिखे ही नहीं
जो खत
मैंने कभी लिखे ही नहीं
महफूज हैं वो आज भी
मेरे जेहन की अलमारी में
लिपटे हुए हैं
अहसासों की तहों में
खा रहे हैं गोते
स्मृतियों के घाट पर
बूझ रहे पहेली
मेरे दिल ओ दिमाग से
अनछूए हैं
जमाने की नजरों से
अनभिज्ञ हैं रस्मों से
दुनियावी रिवाजों से
जमाने के चलन से
वे खत अपने आप
खुल जाते हैं कभी-कभी
प्रत्येक शब्द
मचा देता है शोर
लगता है चिल्लाने
बुलंद आवाज में
जाग उठता है अचानक
सोया हुआ सागर
-विनोद सिल्ला©