खत्म न हो सकी कभी
खत्म न हो सकी कभी
शोषण की दास्ताँ।
रखता नहीं समाज कभी
जिससे वास्ता ।।
मंज़िल को मैं भी पा लूँ
चाहत मुझे भी है।
निकले अगर कहीं से
कोई जो रास्ता ।।
होती उसे ख़बर भी
अपने मेयार की।
अपने गरेबां में
कोई जो झांकता।।
हाथों में मुंह छुपा कर
इंसानियत न रोती।
अपनी निम्नता को
कोई तो नापता।।
डाॅ फौज़िया नसीम शाद