खण्डित आस्था
आस्था कैसे टूटती है‚
मैं बताऊँ – कौवे ने कहा।
काला हूँ‚गोरा चाहते हैं रंग
र्ककश है आवाज‚मीठा चाहते हैं स्वर।
पाहुन के आगमन का पूर्वाभास
चाहते हैं सब
किन्तु‚
छत से मुड़ेर पर
मुड़ेर से छत पर फिर
अनिष्ट की आशंका का झूठ ओढ़े
आकाश में उड़ा देते हैं मुझे।
मेैं हो जाता हूँ विखण्डित।
हवा ने कहा – बताऊँ मैं ?
मैं जीवन का पहला आयाम
ऋतु और मौसम का संवाहक।
अवांछित गैस व धुआँ
जहर बनाकर मिला देते हैं लोग।
मेरी उपयोगिता पर
लगा देते हैं चिह्न प्रश्न का।
आस्था मेरी बड़ी बेजार होती है।
जल ने पूछा – मैं बताऊँ ?
मैं सुधा धारा
जन व जीवन हेतु उत्सर्गित।
लोग तमाम गन्दगी
कार्बनिक‚अकार्बनिक गिरा देते हैं
मेरी स्वर्ग से उतरी धारा में।
टूटती है मेरी आस्था इस तरह।
विटप ने कहा – बताता हूँ मैं।
मैं सृष्टि का प्रथम खण्ड
जीवन का पालक और पोषक
मेरी काया को कुल्हाड़ी से
काट कर देते हैं धराशायी
चढ़ा देते हैं आग को।
मेरी आस्था इस तरह जाती है जल।
शैशव के ककहरे से
यौवन के स्नातक तक
एक–एक टुकड़ा समय से
निर्मित भवन
साक्षात्कारों के बेहूदा सवालों से‚
आरक्षण व संरक्षण की आपाधापी से
टकराकर टूटते हैं
और आस्था टूटती है।
मनुष्य ने कहा – मैं बताऊँ ?
पूँजीवाद से समाजवाद‚
समाजवद से साम्यवाद तक दौड़ते हुए
घिरा पाता हूँ अस्तित्व के महाभारत में।
घिघियाता हूँ।
आस्था ऐसे होती है खण्डित।
¯¯¯¯¯¯¯¯अरुणप्रसाद¯¯¯¯¯¯¯¯