*खजाने की गुप्त भाषा(कहानी)*
खजाने की गुप्त भाषा(कहानी)
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दो सौ साल पुराने मकान को तोड़कर नया मकान बनाने की तैयारी चल रही थी । इसी क्रम में घर का सबसे पुराना कमरा टूट रहा था । दीवार को तोड़ते समय मजदूरों ने आवाज लगाई “बाबूजी ! यह छोटी सी संदूकची निकली है दीवार में। देखिए कुछ काम की तो नहीं है ?”
मैं दौड़ा और तत्काल संदूकची को अपने कब्जे में ले लिया । पीतल की बहुत ही खूबसूरत काम की बनी हुई यह एक छोटी सी संदूकची थी । ऊँचाई 3 इंच ,चौड़ाई भी लगभग 3 इंच और लंबाई 6 इंच। संदूकची को उत्सुकता वश खोला तो देखा कि उसके अंदर एक कागज रखा हुआ है ।कागज को उठाकर देखा तो टेढ़े-मेढ़े कुछ अक्षर बने हुए थे ।लेकिन हाँ , थे एक सीध में । तीन चार लाइनों में यह सब लिखावट थी । समझ में कुछ नहीं आया कि यह सब क्या है ? मजदूरों से उस तरफ काम रोक देने के लिए कहा और उन्हें घर जाने की अनुमति दे दी।
संदूकची और उसमें रखा हुआ कागज लेकर पिताजी के पास दौड़ा- दौड़ा पहुँचा । उन्हें संदूकची और उसमें रखा हुआ कागज दिखाया। सारी घटना बताई। कागज को देखकर वह भी सोच में पड़ गए । कहने लगे “जिस परिस्थिति में यह कागज और संदूकची मिली है ,तो इसमें कुछ न कुछ रहस्य तो होना चाहिए ।लेकिन इस कागज में जो लिखा हुआ है ,उसे पढ़ेगा कौन ? यह तो कोई गुप्त भाषा जान पड़ती है ।”
सहसा पिताजी को कुछ याद आया। कहने लगे” हमारे दादा जी अर्थात तुम्हारे परदादाजी अपने जमाने के बहुत धनवान व्यक्ति थे । मेरे पिताजी बताते थे कि उन्होंने अपना कोई खजाना कहीं छिपा दिया था और फिर अंतिम समय में उसके बारे में स्वयं ही भूल गए थे । दरअसल अंत में उनकी याददाश्त खो गई थी । उन्हें कुछ भी याद नहीं रहा । हो सकता है कि इसमें उसी खजाने का कोई रहस्य छिपा हुआ हो।”
मैंने खुशी से उछल कर कहा “तब तो यह कागज बहुत कीमती है और इसका पढ़ा जाना बहुत जरूरी है ।”
इस पर पिताजी कहने लगे ” एक पुराने मुनीमजी हैं। उनकी आयु 90 वर्ष की होगी । अगर उनसे जाकर पूछा जाए तो शायद इसे पढ़ लें। सुना है , पुराने जमाने में वह बहीखातों का काम करते थे ।”
तत्काल मैं और पिताजी स्कूटर पर बैठे और जिन मुनीमजी का जिक्र हो रहा था, उनके घर पर पहुँच गए । और हाँ ! रास्ते में कुछ फल और मिठाइयाँ साथ में ले लीं। खाली हाथ जाना उचित नहीं था । मुनीमजी घर में खाली बैठे थे। उनके पुत्र से पूछा” क्या मुनीमजी हैं ? ”
वह कहने लगा “अभी तो जब तक ऊपर से बुलावा नहीं आया है ,हमारी छाती पर ही मूँग दल रहे हैं ।”
सुनकर धक्का लगा । “बुजुर्गों के बारे में भला कोई ऐसा कहता है ? ऐसा नहीं कहना चाहिए आपको !”
“क्यों नहीं कहना चाहिए ? अब जब यह किसी काम के नहीं हैं, सिवाय खाना और सोना ,इसके अलावा इनसे कोई काम आता नहीं ,तो इनकी उपयोगिता ही क्या है ? इनका मूल्य फूटी कौड़ी भी नहीं रह गया है।”
पिताजी ने मुनीमजी के पुत्र से बहस करना उचित नहीं समझा। बस इतना कहा “आप हमें उनसे मिलवा दीजिए ।”
लड़का बोला “आइए चलिए ! आप मिल लीजिए !क्या करेंगे मिलकर ?”
पिताजी बोले “कुछ नहीं ,बस हाल-चाल पूछना था ”
लड़का मुनीमजी के पास ले गया। मुनीमजी चारपाई पर रोगी- सी अवस्था में थे ।उम्र की बात भी थी। पिताजी ने उनकी कुशल क्षेम पूछी । वह पहचान गए । पिताजी ने उन्हें फल और मिठाई सौंपी, जिसे उनका पुत्र तत्काल ले गया । कमरे में अब केवल मुनीमजी , मैं तथा पिताजी थे।
पिताजी ने मुनीमजी से कहा “आपसे एक कागज पढ़वाना है । पढ़ देंगे?”
मुनीमजी के रूखे चेहरे पर हल्की सी हँसी तैरी और कहने लगे “हाँ ! अभी आँखों से इतना तो दिख जाता है कि लिखा क्या है । लेकिन ऐसा क्या है जो सिर्फ मैं ही पढ़ सकता हूँ?”
पिताजी ने कागज उनके आगे कर दिया। मुनीमजी ने कागज हाथ में लिया और दो मिनट तक उसे भीतर ही भीतर पढ़ते रहे। उनकी आँखों में गहरी चमक आ गई। धीरे से पिताजी के कान में बोले “इसमें खजाने का विवरण लिखा हुआ है । यह तुम्हें किसी दीवार में छुपाया हुआ तो नहीं मिला ?”
पिताजी खुशी से काँपने लगे। बोले” हाँ ! ऐसा ही है ।”
मुनीमजी ने धीरे से कहा “इसमें लिखा हुआ है कि जिस स्थान पर संदूकची में यह कागज़ रखा हुआ है, ठीक उसी स्थान पर नींव में सोने की अशरफियों का संदूक गड़ा हुआ है ।”
फिर मुनीमजी ने धीरे से बताया “यह कागज मुंडी लिपि में लिखा हुआ है । एक जमाना था ,जब पाठशालाओं में भी मुंडी पढ़ाई जाती थी और दुकानों पर बहीखातों के सारे काम भी इसी मुंडी लिपि में हुआ करते थे । तुम्हारे दादा परदादा इसी मुंडी लिपि को लिखने की आदत रखते होंगे और इसीलिए उन्होंने सहज रूप से इसे मुंडी लिपि में लिख दिया । मुंडी लिपि में लिखने का एक कारण यह भी हो सकता है कि वह नहीं चाहते होंगे कि यह कागज किसी बिल्कुल अनजान आदमी के हाथ में पड़े ।”
पिताजी सुन कर आश्चर्यचकित रह गए। सचमुच अगर उस मजदूर ने संदूकची खोलकर कागज निकाल भी लिया होता तो मुंडी में लिखा होने के कारण वह उसे नहीं पढ़ पाता।
पिताजी और मैं खुशी से उछल रहे थे।अब पिताजी ने मुनीमजी के हाथ चूमे और कहा ” मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूँ। दस हजार रुपए लाया हूँ।आपको दे दूँ।”
बूढ़े मुनीमजी ने कहा “मुझे देकर क्या करोगे ? और मैं रूपयों का करूँगा भी क्या? बुझता हुआ चिराग हूँ। मेरे बेटे को दे दो। शायद वह इससे मेरी कुछ कद्र करने लगे ।”
पिताजी ने ऐसा ही किया। बाहर आए और मुनीमजी के लड़के को दस हजार रुपए दे दिए। कहा “इनसे मुनीमजी की अच्छी तरह सेवा करते रहना ।”
लड़के की समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन उसने झटपट रुपए अपनी जेब में रख लिए । पिता जी घर आए । हम दोनों ने मिलकर हथौड़ी से उस स्थान पर पहले दीवार हटाई और फिर नींव खोदना शुरू किया । जरा सा नीचे जाते ही एक संदूक में सोने की अशरफियाँ भरी हुई मिल गयीं। मुनीमजी ने मुंडी लिपि में लिखे हुए कागज को बिल्कुल ठीक पढ़ा था ।
मैंने कहा ” पिताजी ! अगर मुनीमजी जीवित नहीं होते तो क्या मुंडी लिपि पढ़ने वाला कोई और व्यक्ति शहर में था ?”
पिताजी बोले “मुनीमजी आखिरी व्यक्ति हैं ,जो मुंडी लिपि जानते हैं। एक सज्जन और भी थे, मगर पिछले साल ही उनका भी लगभग 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया था । वैसे मेरा अनुमान भी कुछ-कुछ मुंडी लिपि की तरफ ही जा रहा था । इसीलिए मैं तुम्हारे साथ मुनीमजी के पास ही सबसे पहले गया।”
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 5451