खंड खंड मैं-अखण्ड तुम
।।खंड-खंड मैं,अखण्ड “तुम”।।
खंड खंड होता है इंसान
संपूर्ण तो सिर्फ़ भगवान
खंड खंड क्यों न फिर जीता
हर रिश्ते में क्यों वो रीता?
काल-खंड भी खंड खंड
ईनाम इक तो दूजा दंड
सुख संपूर्ण न संपूर्ण दुःख
होता कहाँ है कोई जीवन
खंड खंड ये मानव गर
जी ले जीवन भी खंड खंड
हो अद्भुत असीम फिर
वस्ले यार उस “अखण्ड” ।।
**शुचि(भवि)**