खंड खंड उत्तराखंड
क्या था वो प्रलय दिवस सा
मनुज हुआ कितना विवश सा
कैसी वो विकल घड़ी थी
विकट विपत्ति आन पड़ी थी
अचल गिरि भी सचल हुए थे
लोचन कितने सजल हुए थे
उधर उद्दंड निर्झर का शोर
हिम खंडों का बढ़ता जोर
कितनी शापित हुई थी भोर
भीगी भीगी सबकी कोर
गुंजायमान बस चीत्कार था
बेबस व्याकुल बस पुकार था
बहे खिलौने से कितने थे
नद के जद में जितने थे
कितनों के सपने टूटे थे
कितनों के अपने रूठे थे
कोई नीर-निमग्न हुआ था
हृदय कितनों का भग्न हुआ था
बाहर सब व्याकुल गुमसुम थे
कितने बेबस पंक में गुम थे
अकथ कथा सी उनकी पीर
कैसे धरें कोई मन में धीर
देह पंक में जकड़ी होंगी
सांसें कैसे उखड़ी होंगीं
इसका हिसाब लगाए कौन
रहे भी कोई कैसे मौन
छेड़-छाड़ क्यों इस प्रकृति से
निजात कब हो इस विकृति से
अब तो जन को जन रहने दो
प्रकृति को अपना कहने दो
गिरि भी अपने नद भी अपने
उन्मुक्त उदात्त निर्झर बहने दो ।
अशोक सोनी
भिलाई ।