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11 Feb 2021 · 1 min read

खंड खंड उत्तराखंड

क्या था वो प्रलय दिवस सा
मनुज हुआ कितना विवश सा
कैसी वो विकल घड़ी थी
विकट विपत्ति आन पड़ी थी
अचल गिरि भी सचल हुए थे
लोचन कितने सजल हुए थे
उधर उद्दंड निर्झर का शोर
हिम खंडों का बढ़ता जोर
कितनी शापित हुई थी भोर
भीगी भीगी सबकी कोर
गुंजायमान बस चीत्कार था
बेबस व्याकुल बस पुकार था
बहे खिलौने से कितने थे
नद के जद में जितने थे
कितनों के सपने टूटे थे
कितनों के अपने रूठे थे
कोई नीर-निमग्न हुआ था
हृदय कितनों का भग्न हुआ था
बाहर सब व्याकुल गुमसुम थे
कितने बेबस पंक में गुम थे
अकथ कथा सी उनकी पीर
कैसे धरें कोई मन में धीर
देह पंक में जकड़ी होंगी
सांसें कैसे उखड़ी होंगीं
इसका हिसाब लगाए कौन
रहे भी कोई कैसे मौन
छेड़-छाड़ क्यों इस प्रकृति से
निजात कब हो इस विकृति से
अब तो जन को जन रहने दो
प्रकृति को अपना कहने दो
गिरि भी अपने नद भी अपने
उन्मुक्त उदात्त निर्झर बहने दो ।

अशोक सोनी
भिलाई ।

Language: Hindi
4 Likes · 8 Comments · 542 Views
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