खंडहर
सामने एक खंडहर
उँची पहाड़ी पर
तन्हा सा खड़ा
रहता है नज़र में ।
उसमें जलता
बस एक दिया है ।
उम्मीद है कोई
या कोई तपस्या ,
या फिर पुरानी यादें हैं ।
शायद किसी की बाट जोहता,
या फिर माज़ी संग जीता है ।
कौन जाने बहारें कितनी ,
जीने आई , चली गई फिर ।
रह गया खंडहर अकेला ,
अपने अंत के इंतजार में ।