‘क’ से हिंदी
“‘क’से ‘हिंदी”
———————————–आपने आज से पहले कब हिंदी पुस्तक अथवा उपन्यास कब पढ़ा था; लोगों से पूछो हिंदी की वर्ण माला तो शायद ही कोई पूरी सुना या लिख पाये । पूछने पर कहेंगे शायद ‘क’ से पढ़ते हैं।आज यदि किसी पढ़े लिखे व्यक्ति से ये पूछें कि हिंदी वर्णमाला सुनायें या लिख कर बतायें तो वह ‘क,ख,ग—–‘ही सुनायेगा।अधिकांश लोगों को स्वर और व्यंजन का भेद पता नहीं होगा।हिंदी की गिनती और उसके अंक लिखने शायद ही पाँच दस प्रतिशत बता और लिख पायें।अपने अपने बस्ते खंगाल कर ये देखते हैं कि कितने लेखक हिंदी की टाइप करते हैं ।कितने हैं? जो अपनी रचना बार बार पढ़ कर गद्गगद् हो कर पढ़ते हैं दूसरे रचना कारों की रचना सिर्फ ‘लाईक’ कर के छोड़ देते हैं। पढ़ना तो सिर्फ दिखावा भर होता है।काव्य अथवा साहित्यिक गोष्ठी में कितने लेखक तन्मयता के साथ दूसरे वक्ताओं को सुनते हैं।हम अपनी रचना अपने अाप को सुनाने जाते हैं;चाय पकौड़े खा कर वापिस आ जाते हैं;चटखारे लेकर दूसरों की कमियाँ बताते हैं।
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इन वार्षिक अथवा मासिक गोष्ठीयों से प्रसार कितना हो पाता है ये हम सभी जानते हैं?गोष्ठी से बाहर आते ही हम बहुत गर्व से बता रहे होते हैं कि हमारे बच्चे/पोते/पोती का दाख़िला इस नामी इंग्लिश मीडियम स्कूल में हो गया है।हिंदी की बजाय अंग्रेज़ी में बताना अच्छा भी लगता है और समाज में ‘स्टेटस’ भी बढ़ता है।अपनी मातृभाषा से कटने का अर्थ है अपनी सभ्यता,संस्कार और परंपराओं से कटना।आज कितने रचनाकार अपनी रचनाओं में लोकोक्तियाँ या मुहावरों का प्रयोग करते हैं और भाषा को सुंदर और समृद्ध बनाते हैं।
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आधुनिक हिंदी का विस्तार भक्तिकाल में होना प्रारंभ हुआ।तुलसीदास ,सूरदास ,कबीर ,रसखान आदि की सूची बहुत लंबी है।पुन: रचनाकाल शुरु होता है भारतेंदु हरीश्चन्द्र से जो देवकीनन्दन खत्री और प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों ने समृद्ध किया।आचार्य चतुरसेन, अज्ञेय जैसे साहित्यकार बहुत शोध के बाद लिखने वाले रचनाकार थे।सुमित्रानंदन पंत ने भाषा को अलंकृत किया तो निराला ने समाज का दर्पण दिखाया।महादेवी वर्मा ने छायावाद को नये आयाम दिये तो हरिशंकर परसाई और श्री लाल शुक्ल ने व्यंग्य को क्रमश: लेख और उपन्यास से प्रतिष्ठित किया।पिछले कुछ वर्षों से
शीर्ष पर रहने वाले चर्चित साहित्यकारों का स्थान रिक्त सा है।साहित्य अकादमी पुरस्कारों और हिंदी दिवस पर कुछ हलचल होती है उसके बाद जैसे सब थम सा जाता है।कभी कोई कहानी कोई कविता हवा का झोंका सा दे जाते हैं उसके बाद फिर ख़ालीपन ।
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हमारे देश की जनसंख्या का ४०% हिंदीभाषी है।संविधान में कुल २२ भाषायें हैं जो कि भारत की ९०% जनसंख्या द्वारा बोली जाती है। शेष दस प्रतिशत लोग आँचलिक और स्थानीय भाषायें बोलते हैं।अंग्रेज़ी को संविधान में सहायक भाषा का स्थान दिया है,पर यही सहायक भाषा तो सबके सिर चढ़ कर बोल रही है भारत में बिना अंग्रेज़ी में साक्षात्कार दिये आप के बच्चों को स्कूल में एडमीशन नहीं मिल सकता नौकरी तो बहुत दूर की कौड़ी है।हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान इसलिये मिला की बहुसंख्यक लोग बोलते पढ़ते और लिखते हैं।अब तो २५% दक्षिण भारतीय भी हिंदी पढने और समझने लग गये हैं।यह बात अलग है कि इनमें से अधिकांश उत्तर भारत से गये हुये लोग हैं।पर मानसिक रुप से हम भी वहीं हैं और हिंदी भी वहीं ठहरी हुई है।
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भाषा केवल भावनाओं को आदान प्रदान करने का साधन नहीं है।यह सभ्यता और संस्कृति को साथ लेकर चलती है।यदि इन पर कोई अतिक्रमण करता है तो स्वाभाविक रुप से भाषा भी इसका शिकार बनती है।हिंदी के साथ भी कुछ कुछ एसा हुआ है।अंग्रेज़ी ने संविधान में सहायक भाषा का अधिकार पाने के बाद हर दफ़्तर,कारख़ाना,रेलगाड़ी और बस की टिकटों तक इसने अपना अधिकार जमा लिया और भारतीय क्षेत्रीय भाषायें जिनका अधिकार हिंदी की सहायक भाषा का होना चाहिये था;वह अंग्रेज़ी की सहायक बन कर रह गई।यदि हम किसी और देश की भाषा का दुशाला ओढ़ कर अपने को संभ्रांत दिखाने की कोशिश कर रहे हैं तो हम ग़लतफ़हमी में हैं। धीरे धीरे विदेशी वर्चस्व हमारी हिंदी भाषा,क्षेत्रीय भाषायें,सभ्यता,संस्कृति के लुप्त होने का ख़तरा हो जाता है।संयुक्त राष्ट्र के अनुसार विश्व की लगभग तीन हज़ार भाषायें विलुप्त होने के कगार पर हैं अथवा हो चुकी हैं।हमारी हिंदी भी क़तार में लगी है।हम हिंदी के काम चलाने वाले शब्द ही प्रयोग में ला रहे हैं;व्याकरण और भाषा की विशेषतायें यहाँ तक गणन अंक भी बच्चे न जानते हैं न ही सीखना चाहते हैं। जब तक संभव कुछ सिपहसलार हिंदी का झंडा उठा कर चलते रहेंगे,शायद हिंदी इससे बची रहे।
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शेष अगले वर्ष के’हिदी दिवस’ के लिये भी कुछ बचा रहे।तब तक यही पढें और भी अख़बार,पत्रिकायें और ब्लाग लकदक होंगे अपने अपने लेखों के साथ।आप सब को पढ़िये अवश्य और टिप्पणी अवश्य कीजिये तो पता चलता है कि इतनी मेहनत से लिखा लेख यूँ ही किसी ने सिर्फ निगाह भर कर भी न देखा तो ???
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राजेश’ललित’