क्षुब्ध मन की पीड़ा
नित दिन मन उद्वेलित हो जाता है, यह सोचकर ।
मानवता का नाश कर, क्या मिला उन्हें खुश होकर ?
नित दिन माली के फूल चुराकर,
बेदर्दी से कुचला जाता है ।
हाय ! यह विडम्बना देखकर,
आँखों से अश्रु बहता है ।
मैं पूछती हूँ उनसे, मन में क्रोध की अग्नि भरकाकर ।
मानवता का नाश कर, क्या मिला उन्हें खुश होकर ?
भान नहीं था तनिक भी उसको,
मर्यादा की सीमाओं का,
वह बच्ची थी, उसे क्या मालूम,
खेल उन कपटियों का ।।
क्या दोष था उस कुसुम का, वह बढ़ रही थी नित खिल-खिलाकर।
मानवता का नाश कर, क्या मिला उन्हें खुश होकर?
जाल बिछाकर षडयंत्रों का,
विवश किया उस बच्ची को,
तन-मन पड़े, अपरिचित वेदनाओं ने,
विक्षुप्त किया उसके अन्तर्मन को ।।
मेरा बैचेन मन, उस कपटी से पूछता चित्कार कर।
मानवता का नाश कर, क्या मिला उन्हें खुश होकर?
आखिर क्यों ………….
अपनी अथाह वेदना को,
उसने ना शब्दों का रूप दिया।।
क्यों ना किया प्रतिकार उसने ?
अपने प्रति उस अन्याय का ।।
मौन थी वह किन्तु ……….
मौन थी वह किन्तु, हृदय पूछ रहा था चित्कार कर,
मानवता का नाश कर, क्या मिला उन्हें खुश होकर?
एक चेतावनी दोस्तों मेरी तरफ से उन दुष्टों को ………………
बंद करो ………..
अब बंद करो ये दुष्टों,
समय आ चुका बदलाव का,
बज चुका है बिगुल अब,
तुम पापियों के नाश का………. (2)
~ज्योति ।