क्षरण गीत
गीत
तन से अपने वसन घटाकर
जयती जयती बोल रहे हैं
गिरने को आतुर है गंगा
पग धरती के डोल रहे हैं।
ह्रास सभी पनघट पर देखा
गागर ऊंची तन पर छींटा
अलबेली यह मस्त सुहानी
सब आँखों में घोल रहे हैं।
माना जग में बहुत कुहासा
चढ़ती धूप, मुसाफिर प्यासा
रोटी की है जुगत निराली
किस्मत के ही झोल रहे हैं।
देखा यौवन, और बुढ़ापा
ज्यूँ खाते सब दही-बताशा
शुभ लाभ की देखो घड़ियाँ
सुइयों से ही तोल रहे हैं।।
टूटे साज़, थिरकती उंगली
सुन ले, सुन ले, तू ओ पगली
अब बातों में प्रीत कहाँ रे
हाट-हाट सब मोल रहे हैं।।
सूर्यकान्त द्विवेदी