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21 Feb 2017 · 7 min read

क्षमा करें तुफैलजी! + रमेशराज

तुफैलजी हास्य-व्यंग्य के साथ-साथ ग़ज़ल की उत्तम नहीं ‘सर्वोत्तम पत्रिका’ ‘लफ्ऱज़’ निकालते हैं। जाहिर है पत्रिका में प्रकाशित ग़ज़लें उत्तम नहीं, सर्वोत्तम’ होंगी। ग़ज़ल-संग्रहों की आलोचना भी सर्वोत्तम ही होगी। सम्पादकीय के अन्तर्गत उनकी बात अर्थात् ‘अपनी बात’ भी सर्वोत्तम न हो, ऐसा कैसे हो सकता है।
तुफैलजी ने ‘लफ्ज़’ के वर्ष-1 अंक-4 में अपने सर्वोत्तम सम्पादकीय में लिखा है-‘‘ग़ज़ल में उस्तादों को, परम्परा से ही मानक माना जाता है। मीर तकी मीर ने ‘सिरहाने’ को ‘सिराने’ बाँधा और हम इसे ग़लत होते हुये भी स्वीकार करने को बाध्य हैं… हम उन्हीं के पढ़ाये-सिखाये या बिगाड़े और नासमारे लोग हैं।’’
स्पष्ट है उस्तादों की परम्परा के तुफैलजी जैसे कायल या घायल लोग, उस्तादों की लीक से हटकर चलना नहीं चाहते। गलत परम्पराओं को बदलना नहीं चाहते। फिर भी उनके विचार उत्तम ही नहीं, सर्वोत्तम हैं, तो हैं। ग़ज़ल में इस तरह के पेचो-खम हैं, तो हैं।
परम्परा की दुहाई देकर ग़ज़ल का कीमा कूटने वाले भले ही ‘प्रेमपूर्ण बातचीत करती औरत’ के पेट से गाय की टाँग निकालने और टाँग का निचला भाग ऊँट के सर जैसा बनाने में माहिर हो गये हों [ ‘चुभन’ संग्रह की समीक्षा ‘लफ्ज़’, वर्ष-1, अंक-4 ] किन्तु हिन्दी में वे हिन्दी ग़ज़लकारों को ऐसा करने के खिलाफ यह हिदायत देते नजर आते हैं-‘‘आज भाषा काफी सँवर चुकी है। ये गोस्वामी तुलसीदासजी का काल नहीं कि एक ही क्रिया के लिये ‘करहूं’, ‘करहीं’,‘ करिहों’, कुछ भी चल जाये।’’ [ ‘लफ्ज’ वर्ष 1, अंक-4, पृ. 64 ]
तुफैलजी का यह कैसा सर्वोत्तम आलोचना-कर्म है कि वे मीर की तहरीर से तो अपनी तकदीर सँवारते हैं, किन्तु तुलसीदास का अनुकरण करने वाले हिंदी ग़ज़लकारों को धिक्कारते हैं। क्या तुफैलजी इस सच्चाई से वाकिफ नहीं हैं कि अगर ये काल तुलसीदास का नहीं है तो मीर के ग़ज़ल-मानकों के रास का भी नहीं है।
आचार्य भगवत दुवे के ‘चुभन’ ग़ज़ल संग्रह के बहाने इसी अंक में तुफैलजी का आलोचना-कर्म कितना सर्वोत्तम है, आइये इसे देखें-तुफैलजी की दृष्टि में, ‘‘पुस्तक ‘चुभन’ बढ़ई द्वारा मिठाई बनाने की कोशिश है, जो लौकी पर रन्दा कर रहा है। आलू रम्पी से काट रहा है। मावे का हथौड़ी से बुरादा बना रहा है। पनीर को फैवीकॉल की जगह प्रयोग करने के बाद प्राप्त हुई सामग्री को 120 रु. में बेच सकने की कल्पना कर रहा है।’’
तुफैलजी के इस सर्वोत्तम अलोचना-कर्म का हाल यह है कि उन्हें आचार्य भगवत दुवे की ग़ज़ल की दो पंक्तियों-‘‘ झेलना हम जानते हैं घाव अपने वक्ष पर, पीठ दुश्मन को कभी अपनी दिखायेंगे नहीं’’ में अश्लीलता नजर आती है। अश्लीलता उक्त पंक्तियों में है या तुफैलजी के मन में है? इस सवाल का उत्तर पाठकों या साहित्यकारों को उन्हें अवश्य देना चाहिए।
‘एक विचित्र किस्म का जीवंत जीव’ मानते हुये श्री श्याम सखा ‘श्याम’ ने ‘मसि कागद’ के अगस्त-दिसम्बर-09 में तुफैलजी को 12 ग़ज़लों के साथ प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तुति से पूर्व उन्होंने तुफैलजी के उस सर्वोत्तम व्यवहार का भी जिक्र किया है जो चाहे जब जूतमपैजार का आदी है।
‘ग़ज़ल-सृजन, ग़ज़ल-आलोचना-कर्म और जूतमपैजार’ को किसी हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले तुफैलजी के इस सुकर्म को नमन् करते हुये, ग़ज़ल के क्षेत्र में उनकी परस्पर विरोधी बातों का हुक्का भरते हुये, या यूँ कहें कि उनसे डरते हुये एक पाठक [ क्योंकि उनकी दृष्टि में मैं कवि या लेखक हूँ ही नहीं ] की हैसियत से ‘मसिकागद’ में प्रकाशित उनकी ग़ज़लों का मूल्यांकन करने का अदना-सा प्रयास, इस आशा के साथ कर रहा हूँ कि वे मेरी इस धृष्टता के लिये मुझे क्षमादान देंगे।
मीर तकी मीर की परम्परा का पोषण करते हुये मीर को भी अपनी आलोचना के तीर से घायल करने वाले तुपफैलजी के बारे में सही राय क्या बनायी जाये, जो सर्वोत्तम हो, मेरी समझ से परे है। फिर भी उनकी यह सलाह तो साहित्यकारों को सर-माथे लेनी चाहिये कि-‘‘अपने परों पर किसी दूसरे का बोझ मत ढोइये, एक स्वतंत्र व सतत उड़ान भरिये।’
तुफैलजी ग़ज़ल के क्षेत्र में कैसी स्वतंत्र और सतत् उड़ान भर रहे हैं, आइए उसका अवलोकर करें-
तुफैलजी की ‘मसि कागद’ में प्रकाशित ग़ज़लों में अनेक ऐसे शे’र हैं जो काबिले-दाद हैं। उनमें मार्मिक, तार्किक, ताजा और मौलिक कथन है। अनूठा बाँकपन है। ऐसे शे’र कहने के अन्दाज आज कम ही मिलते हैं। किंतु ग़ज़ल संख्या 10 के मतला में ‘समंदर’ की तुक ‘मुकद्दर’ से मिलाने और अगले शे’र में ‘तर’ काफिया लाने और बाद के शे’रों में ‘अंदर’, इसके बाद फिर ‘समंदर’ और ‘पत्थर’ तुकें निभाना अगर ग़ज़ल के क्षेत्र में स्वतंत्र और सतत् उड़ान भरना है तो ऐसी उड़ान पर अभिमान तुफैलजी कर सकते हैं। वे गुटरगूँ करते हुये ग़ज़ल के चाहे जिस दरबे में उतर सकते हैं। ग़ज़ल के मूलभूत नियमों के उल्लंघन को धीर-गम्भीर प्रयास बता सकते हैं। अगर यही कर्म कोई हिंदी ग़ज़लकार करे तो उसे गरिया सकते हैं।
तुफैलजी का यह कहना कि-‘‘ ग़ज़लकार, ग़ज़ल के आचार्यों को ही नहीं, समकालीन श्रेष्ठ रचनाकारों को भी नहीं पढ़ते।’’ [ लफ्ज़ वर्ष-1 अंक-4 पृ. 64 ] इसलिये हास्यास्पद जान पड़ता है क्योंकि ग़ज़ल के महान विद्वान होने के बावजूद, तुफैलजी की ग़ज़लों में भारी खामियाँ शुतुरमुर्ग की तरह सर उठाती, दूसरों को उल्लू बनाती देखी जा सकती हैं। ग़ज़ल संख्या-11 में तुक ‘डार’ भाषा के भौंडे खिलवाड़ को उजागर करती है।
तुफैलजी कहते हैं- ‘‘रदीफ-काफिये निभाने के लिये हम भाषा के साथ मनमर्जी खिलवाड़ नहीं कर सकते… रचनाकार को भिन्न दिखाने के लिये-‘हाथी रेंकता है’, ‘कुत्ता चिंघाड़ता है’, ‘शेर भोंकता है’, ‘गधा दहाड़ता है’, नहीं लिख सकते हैं।’’
क्षमा करें तुफैलजी! उपरोक्त ग़ज़ल की तत्सम या तद्भव तुकों ‘गुजार’, ‘पार’, ‘दार’, ‘शिकार’, ‘हार’ और इसकी निकृष्ट तुक ‘इश्तहार’ के बीच देशज शब्द की तुक ‘डार’ का प्रयोग उसी रोग की ओर इंगित करता है, जिससे ग्रस्त होकर ‘हाथी चिंघाड़ता नहीं रेंकता है’। ‘शेर दहाड़ता नहीं, भोंकता है’। ‘गधा रेंकता नहीं, दहाड़ता है’। दूसरों के रचनाकर्म पर शर्म की कालिख पोतने से पहले तुफैलजी अपने गरेबान में झाँक लेते तो बेहतर होता।
मेरा तुफैलजी के रचना-कर्म को लेकर कोई आग्रह या दुराग्रह नहीं है। मैं तो बस निवेदन करना चाहता हूँ कि काव्य के लिये किसी भी रचनाकार को दोमुँहे मापदण्ड नहीं बनाने चाहिए। काव्य के सृजन में देशज शब्द भी उतनी ही मिठास घोलते हैं, जितनी कि तत्सम या तद्भव। अतः विवाद भाषा में शब्द-प्रयोग को लेकर नहीं है। विवाद का विषय है- असंगत या भौंड़े शब्द-प्रयोग। इस स्थिति से हर रचनाकार को बचना चाहिये। इसी ग़ज़ल में शब्द ‘नदी’ के स्थान पर ‘नद्दी’ शब्द-प्रयोग भले ही ‘ग्रामत्व दोष’ से युक्त हो, लेकिन ‘किनारे बैठकर ही नदी को पार कराने में’ इसकी व्यंजना शब्द-शक्ति प्रबल है। इसलिये यह प्रयोग खामी के बावजूद सफल है।
“नींद सुविधा की रजाई में उन्हें आती नहीं’|
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‘एक दूजे पर कभी जब वक्त की गर्दिश पड़े’,
‘फर्ज तब अपना निभाती हैं बहिन की राखियाँ’ |
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‘जंगलों का शहर हो गया,
आदमी जानवर हो गया’ |
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झूठ, मक्कारी, कलह, नफरत, दगाबाजी, घृणा,
हर तरफ ये भाईचारे के हमें माने मिले’
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या ‘इनमें अपनी ही बहिन-बेटियाँ सिसकती हैं,
किसी तवायपफ की टूटी हुई पायल पढ़ना’|”
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आचार्य भगवत दुवे के ग़ज़ल-संग्रह ‘चुभन’ की समीक्षा करते हुये और इसी संग्रह की उपरोक्त पंक्तियों के उदाहरण देते हुए तुफैलजी भले ही इन मार्मिक पंक्तियों में सपाटबयानी, मात्रा-दोष, ग़ज़ल की मूल समझ का अभाव या कथ्य में घाव तलाशें, किन्तु तुफैलजी की ग़ज़लें भी दोषों से पाक-साफ हों, ऐसा कहना बेमानी होगा। सपाटबयानी का तीर चलाने वाले क्या ‘मैया मेरी मैं नहिं माखन खायौ’ जैसी सूर की विलक्षण पंक्ति पर सपाटबयानी का आरोप मढ़ सकते हैं? क्या कोई इस पंक्ति में व्यंजना, लक्षणा के प्रयोग कर इस पंक्ति के सपाटबयानी के दोष को दूर कर सकता है? गद्य को पद्य जैसी गरिमा ‘सूर’ जैसा ही कोई कवि प्रदान कर सकता है। अतः यह कहना असंगत या अतार्किक नहीं होगा कि तुफैलजी ने ‘चुभन’ संग्रह को खारिज करने की गरज से ही खारिज करने की कोशिश की है। अगर ऐसा नहीं है तो वे ‘मसिकागद’ में प्रकाशित ग़ज़लों का पुनः अवलोकन करें, सोचें-विचारें, अपने भीतर के अहंकार को मारें तो उन्हें साफ-साफ पता लग जायेगा कि ‘तारे सूर्य के आकार या उससे भी बड़े हैं। आग के विशाल गोले हैं। उन्हें तोड़कर लाया नहीं जा सकता’। मुहावरे को छोड़ असल धरातल पर उनका शे’र-
‘बहुत मुमकिन है तारे तोड़ लाये,
पता कुछ भी नहीं है आदमी का’|
अविज्ञानपरक, कोरी आतिशियोक्ति का जनक और एक ऐसा चकमक माना जायेगा जो आग नहीं, केवल निरर्थक ध्वनि उत्पन्न करेगा।
खुदकुशी का पत्ता चलाकर, किसी टूटते रिश्ते को जोड़ने की प्रक्रिया अधोमुखी ही नहीं, मानसिक दबाव के लिये किये गये अप्रत्यक्ष बलात्कार की द्योतक है। अतः तुफैजली का किसी को यह सलाह देना –
[ ‘वो रिश्ता तोड़ने के मूड में है,
मियां पत्ता चलो अब खुदकुशी का’ ]
बेबुनियाद ही नहीं, गलत है। धूर्त्तता और चालाकी से भरा कर्म है। गांधीवाद की कथित अहिंसा की कटार के प्रयोग भी जगजाहिर हैं। इनसे न किसी डायर का मन पसीजा और न कोई साइमन अत्याचार करने से चूका।
नदी को बाँध् बनाकर उसे झील बनाने और उसके बल समाप्त करने से जल ठहर जायेगा, जो न तो खेतों की सिंचाई के काम आयेगा और न किसी प्यासे कंठ की प्यास बुझायेगा। झील में गिरते जल में जो ठहराव आयेगा, नदी का पानी बदबूदार हो जायेगा। अतः तुफैलजी के शे’र-
[ बनाके बाँध तुझे झील करके छोडूँगा,
जरा-सा ठहर नदी तेरे बल निकालता हूँ’]
की समस्त क्रिया एक अधोमुखी चिन्तन का ही वमन बनकर रह जायेगी। किसी को दास बनाकर अत्याचार करने, अहंकार भरी हुंकार भरने से ही यदि ग़ज़ल सार्थकता ग्रहण करती है तो तुफैलजी को बधाई।
तुफैलजी की सातवीं ग़ज़ल के दूसरे शे‘र-
[ लौटेगी फिर देर से घर,
फिर बावेला होना है ]
में कर्त्ता कौन है, पत्नी, प्रेमिका या रखैल? शे‘र की मुक्कमलबयानी पर बट्टा लगाते उक्त शे’र के माध्यम से आखिर वे क्या कहना चाहते हैं? क्या दफ्तर के कामकाज से लौटी धर्मपत्नी को काव्य के पात्र के साथ कोई अन्य स्त्री हमबिस्तर मिलेगी, जिसे देखकर वह आग-बबूला हो जायेगी? या काव्य का पात्र दारू के नशे में धुत्त पड़ा होगा, जिसे वह आते ही फटकारेगी? अश्लीलता या अनैतिकता की पराकाष्ठा को ध्वनित करने वाला यह शे’र किस कोण से सार्थक अभिव्यक्ति का नमूना है? क्या तुफैलजी को ऐसे ही अपने स्वाभिमान के परों पर स्वतंत्र और सतत उड़ाने भरते हुये ग़ज़ल के सबसे ऊँचे और सर्वोत्तम आकाश को छूना है?
———————————————————
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
344 Views
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