क्रोधाग्नि है जिसका भूषण, उसको क्यों शीत लगेगी।
क्रोधाग्नि है जिसका भूषण
शीत उसे क्यों लगती होगी ।
आग उगलते जो जिह्वा से
शीत उसे क्यों लगती होगी ।
सुखी देख कर अपने लोगों को
जो जलते क्या ठंड लगेगी।
आग लगाते जो समाज में
उनके घर क्या आग जलेगी।
शीत में पारा गिरते देखा
मानव चरित्र हर मौसम गिरता ।
ईर्ष्या का है ताप जलाता
मानव का अन्तर्दहन हो जाता ।
प्रगति देखकर पास पड़ोस
बिना आग के ही जल जाता ।
मानव मन की आग देखकर
प्रकृति दंग होकर घबराता।
शीत कपकपी देता है पर
मानव सिहरन देता है डराता।
विन्ध्यप्रकाश मिश्र विप्र