क्रोंच विरह से निकली कविता,हर उर की भाषा बन आयी हो…
क्रोंच विरह से निकली कविता,हर उर की भाषा बन आयी हो।
मन के भावों की तुम भाषा,हर मन व्यक्त कर पायी हो।
जीवन का हर राग रचा,अभिव्यक्त सहज सब कर आयी हो।
हर्ष-विरह-श्रंगार सभी रस,जनभाषा तुम कहलायी हो।
वेदों से लेकर पुराण गढे सब,क्रांति की वाणी बन पायी हो।
कविता तुम रहती हर उर में,नैनो की भाषा पढ़ आयी हो।
कभी रचती तन्हा मन को,कभी बावरी कहलायी हो।
कभी प्यास बन चातक चुनती,कभी प्रेम की राधा बतलायी हो।
कहता “विकल” तुम बिन क्या मै,जीवनसार तुम बन आयी हो।
✍कुछ पंक्तियाँ मेरी कलम से : अरविन्द दाँगी “विकल”