क्रांतिवीर नारायण सिंह
क्रांतिवीर नारायण सिंह
सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम में मातृभूमि के लिए मर मिटने वाले षहीदों में छत्तीसगढ़ के आदिवासी जननायक क्रांतिवीर नारायण सिंह का नाम सर्वाधिक प्रेरणास्पद है। प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम में छत्तीसगढ़ अंचल के प्रथम शहीद क्रांतिवीर नारायण सिंह का जन्म सन् 1795 ई. में सोनाखान के जमींदार परिवार में हुआ था। सोनाखान वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के बलौदा बाजार जिले में स्थित है।
नारायण सिंह के पिता श्री रामराय स्वतंत्र प्रकृति के स्वाभिमानी पुरुष थे। वे ब्रिटिश शासन से कई बार टक्कर ले चुके थे। रामराय ने सन् 1818-19 ई. के दौरान अंग्रेजों तथा भोंसलों के विरुद्ध तलवार उठाई थी जिसे कैप्टन मैक्सन ने दबा दिया। बिंझवार आदिवासियों के सामथ्र्य और संगठन शक्ति से जमींदार रामराय का दबदबा बना रहा और अंततः अंग्रेजों ने उनसे संधि कर ली थी।
नारायण सिंह बचपन से ही अपने पिताजी की भांति वीर, साहसी, निर्भीक, पराक्रमी एवं स्वतंत्रताप्रिय व्यक्ति थे। वे तीरंदाजी, तलवारबाजी और घुड़सवारी में निपुण थे। बीहड़ जंगलों में हिंसक जानवरों के मध्य नारायण सिंह निर्भीकतापूर्वक घूमते थे। नदी एवं तालाब में तैरना और पेड़ों पर चढ़ना उनका शौक था। वे दशहरा, होली, दीवाली जैसे धार्मिक उत्सवों में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। उन्होंने अपने गुरुजी से धार्मिक ग्रंथों एवं नीति संबंधी ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। रामायण, महाभारत और गीता में उनकी विशेष रुचि थी। वे परोपकारी, मृदुभाषी न्यायप्रिय एवं मिलनसार स्वभाव के किंतु अत्याचार, अन्याय एवं शोषण के घोर विरोधी थे।
सन् 1830 ई. में रामराय जी की मृत्यु के पश्चात नारायण सिंह जमींदार बने। जमींदारी संभालने के बाद उन्होंने अपनी प्रजा के दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द समझा और उसे दूर करने के अनेक उपाय किए। उनके पास एक बहुत ही सुन्दर और फुर्तीला कबरा घोड़ा था। वे अकसर उस पर सवार होकर अपने क्षेत्र का भ्रमण करते। लोगों की समस्याएँ सुनते और यथासंभव उन्हें दूर करने का प्रयास करते थे।
नारायण सिंह अन्य जमींदारों की तरह तड़क-भड़क से नहीं बल्कि एकदम सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनका मकान कोई बड़ी हवेली या किला नहीं था बल्कि बाँस और मिट्टी से बना साधारण-सा मकान था। उन्होंने अपने क्षेत्र में कई तालाब खुदवाए और उनके चारों तरफ वृक्षारोपण करवाए। वे स्थानीय पंचायतों के माध्यम से ही लोगों की समस्याओं एवं विवादों का समाधान करते थे।
नारायण सिंह अपनी जमींदारी में सुख एवं शांति से जीवन व्यतीत कर रहे थे। सन् 1854 ई. में अंग्रेजी राज्य में विलय के बाद कैप्टन इलियट की रिपोर्ट के आधार पर इस क्षेत्र के लिए नए ढंग से टकोली (लगान) नियत की गई जिसका नारायण सिंह ने कड़ा विरोध किया। इससे रायपुर के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर इलियट उनके विरोधी हो गए।
सन् 1856 में सोनाखान तथा आसपास का क्षेत्र भीषण सूखे की चपेट में आ गया। लोग दाने-दाने के लिए तरसने लगे। वनवासियों को कंदमूल फल और यहाँ तक कि पानी मिलना भी कठिन हो गया। सूखा पीड़ित लोग सोनाखान में एकत्रित हुए। वे नारायण सिंह के नेतृत्व में कसडोल (वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य के बलौदा बाजार जिले में ही सोनाखान के समीप स्थित) के व्यापारी माखन से संपर्क किए। उसका गोदाम अन्न से भरा था। नारायण सिंह ने माखन से आग्रह किया कि वह गरीब और बेबस वनवासी किसानों को खाने के लिए अन्न और बोने के लिए बीज अपने भंडार से दे दे। किसान उसे परंपरानुसार फसल आने पर ब्याज सहित वापस कर देंगे।
व्यापारी माखन जो अंग्रेजों का विशेष कृपापात्र था, नारायण सिंह की बात मानने से साफ इंकार कर दिया। नारायण सिंह ने व्यापारी माखन के भंडार के ताले तुड़वा दिए और उसमें से उतना ही अनाज निकाला जो गरीब किसानों के लिए आवश्यक था। नारायण सिंह ने जो कुछ भी किया था, उन्होंने तुरंत उसकी सूचना डिप्टी कमिश्नर को लिख कर दे दी थी। अंग्रेज सरकार तो पहले से ही उनके विरुद्ध किसी भी तरह से कार्यवाही करने के फिराक में लगी थी। व्यापारी माखन की शिकायत पर कैप्टन इलियट ने तत्काल नारायण सिंह के विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया। अंग्रेज सरकार की नजर में यह कानून का उल्लंघन था। उनके लिए मानवीय संवेदना और हजारों किसानों के भूखों मरने का कोई मूल्य नहीं था।
24 अक्टूबर सन् 1856 ई. को नारायण सिंह को संबलपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें चोरी और डकैती के जुर्म में बंदी बनाया गया। एक छोटे से मुकदमें की औपचारिकता निभाकर उन्हें रायपुर जेल में डाल दिया गया। सन् 1857 ई. की ऐतिहासिक स्वाधीनता संग्राम के दिनों में 28 अगस्त सन् 1857 ई. को नारायण सिंह अपने कुछ साथियों के साथ जेल से भाग निकले और सोनाखान पहुँच कर उन्होंने लगभग 500 विश्वस्त बंदुकधारियों की सेना बनाई और अंग्रेजों के विरुद्ध जबरदस्त मोर्चाबंदी कर करारी टक्कर दी। रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें पकड़वाने के लिए नगद एक हजार रुपए का ईनाम घोषित किया था।
भीषण संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने नारायण सिंह को 21 दिसम्बर सन् 1857 ई. को कूटनीति से कैद कर लिया। अंग्रेज सरकार द्वारा उन पर मुकदमा चलाया गया। शासन के विरुद्ध विद्रोह करने तथा युद्ध छेड़ने के अपराध में उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई।
10 दिसम्बर सन् 1857 ई. को रायपुर के प्रमुख एक चौक में सभी सिपाहियों के सामने क्रांतिवीर नारायण सिंह को फाँसी दे दी गई। ऐसा इसलिए किया गया था ताकि लोग आतंकित हो जाएँ और अंग्रेजों के विरुद्ध सिर उठाने का साहस न कर सकें। हालांकि अंग्रेजों का यह भ्रम मात्र 39 दिनों के भीतर ही दूर हो गया, जब 18 जनवरी सन् 1858 को रायपुर छावनी के थर्ड रेगुलर रेजीमेण्ट के मैग्जीन लश्कर ठा. हनुमान सिंह के नेतृत्व में सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
क्रांतिवीर नारायण सिंह भारत की आजादी की लड़ाई में इस क्षेत्र में युवाओं के प्रेरणास्रोत रहे। अत्याचार एवं अन्याय के विरुद्ध लगातार संघर्ष का आह्वान, निर्भीकता, चेतना जगाने और ग्रामीणों में उनके मूलभूत अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न करने के प्रेरक कार्यों को दृष्टिगत रखते हुए नवीन राज्य की स्थापना के बाद छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में आदिवासी एवं पिछड़ा वर्ग में उत्थान के क्षेत्र में एक राज्य स्तरीय वीर नारायण सिंह सम्मान स्थापित किया है।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर , छत्तीसगढ़