क्यो समझता मुझे खिलौना
क्यों समझता मुझे खिलौना, आखिर मैं भी तो हूं इंसान ।
देखकर तेरी तानाशाही, बहुत ज्यादा हूं मैं हैरान।।
पुरुषवाद का घमंड तुझे, तुझ पर अंधा नशा ये छाया है,
बनाकर पिंजरे की चिड़िया मुझे, क्या बता तूने पाया है।
गुरुर ने तुझमे पैर पसारे, बेईमानी का तुझ पर साया है।
अपनी उंगली पर नचाये, तूने ये कैसा हक जताया है।
फूलकर तू कुप्पा हो गया, भरा है तुझमे बहुत गुमान।
क्यों समझता मुझे खिलौना, आखिर मैं भी तो हूँ इंसान।।
हमसाया बनकर तेरे साथ खड़ी, पर तुझे नजर ना आये।
थोड़ी हँसती देख मुझे, तू अंदर तक तिलमिला जाये।
“मलिक” खड़ी ये बाट जोहे, वो खुशनुमा पल कब आये।
मेरा वजूद स्वीकारे तू तुझको, बिल्कुल अपने जैसा भाये।
“सुषमा” तुझे हर बार बताये, तू मान मेरी भी है पहचान।
क्यों समझता मुझे खिलौना, आखिर मैं भी तो हूं इंसान।।
सुषमा मलिक, रोहतक