क्यों
क्यों ?
जीवन के इन पथरीले रास्तों में।
जब पलट कर देखती हूँ
पीछे मुड़कर तुम्हें
बदहवास सी बस
ढूंढती ही रहती हूं
क्यों?
तुम मुझे मिल न पाए
समाज ने भी हमें मिलाया था
नसीब से भी हम
गठबंधन में तो बंधे थे
फिर भी न जाने
क्यों?
तुम उलझकर रह गए
इन बंधनों में
तुम झिझककर रह गए
दकियानूसी रीतियों में।
देह सौंप दी थी तुम्हें
पहले ही मिलन में
मिलन देह से देह का
हो पाया बस इन वर्षों में
एक ही सवाल आज भी
क्यों?
तुम बड़ न पाए आगे
तुम छू न पाए कभी
मेरी रूह को
सिमट कर रह गए बस
बदन के इर्द-गिर्द
क्यों?
मेरे रूठने पर मना न सके कभी
आंसुओं को मेरे कभी
पोछ न सके तुम
ये माना कि मनाया तुमने
कभी कभी मुझे
पर वो भी सिर्फ तब
जब तुम्हारी देह तप रही थी
जब तुम बैचैन हुए
क्यों?
नहीं दिखी कभी तुम्हें मेरी बेचैनी जो
नही थी देह की भूखी
मेरे रूह की निश्छल छवि
क्यों न देख पाए कभी तुम
इस रूहानी इश्क़ को
जो लूट था सिर्फ तेरी रूह पर
क्यों?
आरती लोहनी