क्यों! रणातुर रहा
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जिन्दगी मुझसे और मैं जिन्दगी से लड़ने को सज्ज था।
सारा विश्व मुझे पराजित होता देखता खड़ा निर्लज्ज था।
व्यक्ति मैं अकेला समूह के विरुद्ध सिर्फ रण का प्रण था।
मेरे साथ नहीं लड़ना, सामूहिकता का नाश व मरण था।
मुझे जिन्दगी का आमन्त्रण समूह के चरित्र ने दिया था।
उस आमन्त्रण की उपज मैं,मेरा तिरस्कार क्यों किया था?
सामूहिकता की समानता को मेरी बारी पे मार गया लकवा।
भिन्न जाति,वर्ग के भिन्न मौकों में उलझा रहा मेरा बरवा। (छंद का प्रकार)
नया न मार्ग था मिला चले ही मार्ग पर चला,मार्ग पर रुद्ध था।
मैं पुकारता रहा शब्द को सजा-सजा कान ही अति क्रुद्ध था।
ठंढ भरकर धूप में उष्णता मुझे दिया पर बर्फ सी थी प्रेरणा।
हर कदम पर गिरा हर कदम को फिर उठा,युद्ध पर रहा ठना।
मेरे हिस्से का सारा चाणक्य कुंवर चन्द्र गुप्त के हवाले हुआ।
कठोर वक्ष कर चला कठोर पग धर चला कठोर रण पर, हुआ।
कठोरता से हारकर श्वेत ध्वज धार कर हर उल्लास त्यागकर-
मैं समर्पण को उठा स्वगर्व को बुरा लगा युद्ध को यूँ उठा स्वीकार कर।
अस्त्र-शस्त्र थे नहीं मन्त्र भी नहीं कहीं,मन्तव्य पर,विजय का था।
द्रोण के चरण छुये,आशीष की थी लालसा चाह तो विनय का था।
मांग पर मुझे लिया दक्षिणा के नाम पर कृपा के नाम मैं बिका।
कर्ण के श्राप की कथा कर्ण से हुआ बड़ा इसलिए मरण मिला।
समूह के विधान में इंद्र का तो भाग है मनुज में पर,विभाग है।
दीन मैं सही परन्तु दीनता विधि नहीं,न धर्म था,आज मेरा आग है।
विभव धरा का दान है सर्वप्राण के लिए,धरा ने जो धरा ये मर्म था। (धरा=पृथ्वी;धारणकिया)
धरा का दान अंश,अंश हरेक वंश को मिले समूह का ये धर्म था।
मैं लड़ा जो रण यहाँ जिन्दगी निहारता रहा मुझे अवश,विवश किये।
समूह भी उतारता रहा कवच मेरा ‘दरिद्र हूँ’ के नाम पर प्रहर्ष किये।
मैं जिया विपन्न सा पर,रहा प्रसन्न सा जिन्दगी जीवंत हो इसलिए।
तुम जिये प्रसन्न सा पर,रहे विपन्न सा मनुष्यता का ऋण लिए।
समूह हो मनुष्य हित मनुष्य को समूह का प्रारब्ध बना कर चले।
जिन्दगी को रण नहीं कभी बना गया था ब्रह्म।
रण बना के जिन्दगी को भर रहा समूह दम्भ।
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