” क्यों ना “
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ये ‘ शरीर ‘ मेरा ना मैं इसकी ,
क्यों ना इसे मैं अपने हिसाब से चलाऊं ।
मैं इसके पीछे क्यों भागूं ?
क्यों ना इसे किसी काबिल बनाऊं ।।
ये ‘ आंख ‘ मेरे ना मैं इनकी ,
क्यों ना इनको मैं सुंदरता दिखाऊं ।
काले चश्मे में इन्हें क्यों छुपाऊं ?
क्यों ना इनको वास्तविकता से मिलाएं ।।
ये ‘ होंठ ‘ मेरे मैं ना इनकी ,
क्यों ना इनसे मैं मुस्कुराऊं ।
बुरे शब्द मैं क्यों इनसे बुलाऊं ?
क्यों ना इनसे अमृत रस छलकाऊं ।।
ये ‘ नाक ‘ मेरा ना मैं इनकी ,
क्यों ना इसे मैं सुगंध सुघाऊ ।
किसी को देख मैं क्यों इन्हें सुकराऊ ?
क्यों ना इनसे श्वसन क्रिया कराऊं ।।
ये ‘ कान ‘ मेरे ना मैं इनकी ,
क्यों ना इसे मैं संगीत सुनाऊं ।
गंदगी इसमें मैं क्यों भरवाऊ ?
क्यों ना इनको शुद्ध श्रोता बनाऊं ।।
ये ‘ मस्तिष्क ‘ मेरा ना मैं इसकी ,
क्यों ना इसे स्पष्टी बनाऊं ।
चिंता का घर क्यों मैं इसे बनाऊं ?
क्यों ना इसमें नए विचार लाऊं ।।
ये ‘ हृदय ‘ मेरा ना मैं इसकी ,
क्यों ना इसे मैं दयनीय बनाऊं ।
छल – कपट या बदले की भावना इसमें मैं क्यों लाऊं ?
क्यों ना इसमें स्नेह – प्रेम का भाव ले आऊं ।।
ये ‘ पैर ‘ मेरे ना मैं इनकी ,
क्यों ना इन्हें दूरगामी बनाऊं ।
कांटे देख मैं इन्हें क्यों छुपाऊं ?
क्यों ना इन्हें हर मुश्किल में बढाऊ ।।
ये ‘ हाथ ‘ मेरे ना मैं इनकी ,
क्यों ना इनसे खुशियां लुटाऊ ।
भीख मांगने के लिए मैं क्यों इन्हें उठाऊं ?
क्यों ना इनसे सेवा कर सबको प्यार से गले लगाऊं ।
इन उंगलियों को मैं क्यों बंदी बनाऊं ?
क्यों ना पकड़ कलम बस लिखती जाऊं ।।
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? धन्यवाद ?
✍️ ज्योति ✍️
नई दिल्ली