क्यों नहीं मिलते
इन बेशकीमती आँसुओं के खरीदार नहीं मिलते
न जाने क्यों पहले जैसे अब दिलदार नहीं मिलते
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1.इस आबोहवा इस फ़िजा में किसने ज़हर घोला है
न जाने क्यों पहले जैसे अब ऐतबार नहीं मिलते
हम समझते थे हमनशीं जान-ए-तमन्ना जिसको
न जाने क्यों पहले जैसे अब वो बेकरार नहीं मिलते
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2.ढूंढते तो बहुत हैं कोई मिल जाए हमअदा हमनवां
न जाने क्यों पहले जैसे अब समझदार नहीं मिलते
लगते ही फल तोड़ लेते हैं अक्सर बागवां
न जाने क्यों पहले जैसे तरु फलदार नहीं मिलते
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3.हमसे इश्क़ करने के शौकीन बहुत हैं मगर
न जाने क्यों पहले जैसे अब औजार नहीं मिलते
इश्क़ का बाज़ार रहता है यहाँ अक्सर
न जाने क्यों पहले जैसे अब प्यार नहीं मिलते
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4. लोग गुमसुम से रहने लगें हैं आजकल
न जाने क्यों पहले जैसे अब तलबगार नहीं मिलते
बँट गए हैं घर कई चारदीवारियों में भी यहाँ
न जाने क्यों पहले जैसे अब परिवार नहीं मिलते
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5. स्वार्थपरक हो गए हैं जमाने में लोग अब
न जाने क्यों पहले जैसे बेमतलब यार नहीं मिलते
आदमी ख़ुद टुकड़ों में बँट गया है शायद
न जाने क्यों पहले जैसे खुशियों के संसार नहीं मिलते
6.
धन-दौलत जायदाद की ख़ातिर लड़ते लोग यहाँ
न जाने क्यों पहले जैसे अब घरबार नहीं मिलते
अपने ग़ैरों से कम अपनों से ज्यादा डरते हैं
न जाने क्यों पहले जैसे अब दरबार नहीं मिलते
7.
छीन लेते हैं कुछ सिरफिरे सरेराह आबरू भी
न जाने क्यों पहले जैसे अब दमदार नहीं मिलते
खो देते हैं शक्ति बचपन की गलतियों से जवान
न जाने क्यों पहले जैसे चेहरे चमकदार नहीं मिलते
8.
जहरीली हो रही है नई नस्ल हमारे वतन की
न जाने क्यों पहले जैसे अब मनुहार नहीं मिलते
साज बजाते तो हैं बेसुरी बेमतलब की तानों के
न जाने क्यों पहले जैसे अब झंकार नहीं मिलते
9.
हँसी भूले दिल जख़्मी घायल हैं लोग सब यहाँ
न जाने क्यों पहले जैसे अब रिश्तेदार नहीं मिलते
कलियाँ निकलती गुल खिलते गुलशन महकते हैं
न जाने क्यों पहले जैसे “निश्छल” अब बहार नहीं मिलते
मौलिक एवम् स्वरचित
अनिल कुमार “निश्छल”
हमीरपुर (बाँदा) उ० प्र०