क्योंकि माँ भी कभी लड़की थी …..
अपनी युवा अवस्था में ,
कभी सोते ,कभी जागती आँखों से ,
सपने रंगीन देखती थी ।
अपने रूप /यौवन को सजाने हेतु ,
रूप सज्जा करती और ,
सुंदर ,रंगीन महंगे वस्त्र धारण करती थी ।
अपनी रुचि /अरुचि को बे झिझक ,
बयां करती थी।
रूठना फिर मान जाना ,
ज़िद करना ,लाड़ -लड़ाना ,
उसे भी आता था ।
रोना और क्रोध करना ,
भी उसे आता था ।
शिक्षा प्रतियोगिता में भी ,
अव्वल रहती थी ,
बहुत बुधद्धिमान थी तुम्हारी माँ ।
मगर जब विवाह बंधन में बंधी ,
अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया ।
और जब परिवार बढ़ा ,संतान आई ,
तो अपने अरमान ,अपने सपनों को भी वार दिया ।
घर -कुटुंभ की सेवा –सत्कार ,
जिम्मेवारियों में अपनी रुचियों को भुला दिया ।
युवा अवस्था कब गयी ,
कब प्रोढ़ हुई ,कुछ पता न चला ।
तुम्हारी माँ ,कब खुद को भूल गयी ,
कुछ पता न चला ।
कभी अपनी व्यस्तता से समय निकालकर ,
अपनी माँ के पास बैठो ,
और पूछो उसके दिल का हाल ।
तो अवश्य जान जाओगे ,
इस वक्त की गुबार से धुंधले चेहरे को साफ करोगे ,
तो देख सकोगे ।
तुम्हारी माँ भी कभी लड़की थी ।