— क्या हो गया जमाने को —
कभी डर लगता था , कि
कहीं दुशमनी न हो जाए
राह चलते कोई साथ में
अनहोनी ही न हो जाए !!
एक खौफ्फ़ सब के दिल में
हर वक्त घर बना लेता था
सही से घर पहुँच जाए
बस कहीं देर न हो जाए !!
आज दुशमन बन बैठा
घर के अंदर सपूत ही
किया क़त्ल माता पिता का
अब कैसे विश्वाश हो जाए !!
न जाने क्या हुआ है जमाने को
यह कैसा खेल रच दिया है
अपने ही रिश्तों को लाश
बनाकर सब के सामने रख दिया है !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ