क्या होगा
समंदर से जुदा हो गए तो उन लहरों का क्या होगा
कलियां जो रही रुठीं तो फिर भंवरों का क्या होगा
गांवों से ही है आबाद शहर हर एक जमाने का
अगर जो गांव न होंगे तो फिर शहरों का क्या होगा
यहां पर अंधा है कानून और लंगडी़ सियासत है
लगे जो बोलने गूंगे तो फिर बहरों का क्या होगा
यहाँ पर नदियों का पानी बुझाता प्यास खेतों की
सुखा दीं हमने गर नदियां तो फिर नहरों का क्या होगा
भरा है विष का एक भंडार हर इंसां के सीने में
जो विषधर ने रखें है पाल उन जहरों का क्या होगा
बस एक लफ्ज में जाने की बात तुमने कह तो दीं
नहीं सोचा तुम्हारे बाद उन पहरों का क्या होगा
विक्रम कुमार
मनोरा, वैशाली