क्या हम सब चमार है?
आपने लोगो को खूब कहते सुना होगा खुदसे प्रेम करना चाहिए। वही सबसे ऊँची बात है। खुदसे प्रेम करो तब न दूसरे से प्रेम कर पायोगे। और न जाने ऐसी तमाम बातो का प्रचलन इतना बड़ गया है। हर जुबा अब खुदसे प्रेम की बात करते नज़र आ जायगी । लेकिन रुक कर एक बार जरा सोचे कि आखिकार खुदसे प्रेम करे तो करे कैसे?
बात सीधी लगती है, पर उतनी है नही। हम पहली बात तो प्रेम नही जानते, दूसरी खुदको नही जानते तो हम कहते क्या उस बात के मायने भी नही जान पाते। ज्यादा से ज्यादा हमारी इस बात का मतलब अपनी जों ईच्छाए है उनको पुरा कर लेना। और सरल उतरे तो अपनी मर्जी या अपने भोग का सामान जमा कर लेना हीं एकमात्र हमारे लिए प्रेम है। इसमे कोई बाधा आधि देविय है तो समय ठीक नही,किस्मत साथ नही दे रही है और यदि समस्या आधिभौतिक है तो वो मुझसे प्रेम नही करता है,तभी न मेरी कामनाओ को पुरा नही होने देता है।
इसको खुदसे प्रेम करना कहना सीधा सा अपने अहंकार को और बढ़ाना है। जबकि हमें अपना जीवन अपने अहंकार को विगलित करने के लिए मिला है। खुदसे प्रेम माने खुदको यानी अपनी चेतना को ऊंचा उठाना है,तो क्या हम ये कहे की चेतना नीचे गिरी है। बिल्कुल सही। हम जितना खुदको शरीर मान कर जीते है उतनी हमारी चेतना नीचे गिरती है। शरीर मानकर जीने से मतलब शरीर की हीं जरूरत को पुरा करते रहने मे अपना समय व्यतीत करना। शरीर माध्यम मात्र है शरीर केंद्र नही है जीवन का है। अब इसकी हीं सुख सुविधा हीं बढ़ाते रहने मे लगना समय की व्यर्थता है।
राजा जनक की सभा मे जब ऋषि अस्टावक्र के आठ जगह से टेड़े शरीर को अजीब मुद्रा चलते देख जब सब हँसने लगे तो ऋषि और तेज तेज हँसे । सब जब शांत हुए तो राजा जनक ने उनकी हंसी का कारण पूछा तो ऋषि बोले कि में आपकी सभा में उपस्थित इन चमारों को देख कर हंसा। राजा जनक बोले क्या तात्पर्य आपका। ऋषि ने कहा जो मात्र शरीर को हीं देख कर व्यक्तित्व अंदाजा लगाए वो चमार नही तो क्या है। ब्राह्मण वो जो ब्रह्म विचारे। शरीर से तो हम सब चमार हीं है।
खुदसे प्रेम का मतलब अपनी चेतना को ऊंचाई देना है हम जब भी कोई ऐसा कार्य करे,जिससे हमारा अंतकरण अशांत हो जाये। वो हमें नीचे ही धकेलता है। छुद्र बातो में उलझकर हम छुद्रता को हीं प्राप्त होते है। जीवन में सारी चीजें आपका शरीर, आपका परिवार, आपके रिश्ते, आपका पेशा, जीवनसाथी सब का उद्देश्य मात्र आपकी चेतना को ऊंचा ले जाने आपकी मदद करना होना चाहिए, जो भी रिश्ता फिर चाहे शरीर से हो या मन से हो अहम को आत्म तक ले जाने वाली यात्रा में सहायक नही है वो आपको सिवाय आशांति के कुछ दे नही सकता है।