क्या से क्या
क्या से क्या हो गए हम।
कल कहाँ से चले थे
अब कहाँ खो गए हम।।
फूलों से वो बने घर ।
खुशबुओं के वो मंजर ।।
माँ के चूल्हे की रोटी।
जो खरी थी न खोटी।।
प्रेम से खाते सब
वो कहाँ स्वाद अब
भूल उसको गए हम ।
अब कहाँ खो गए हम।।
रास्ते धूल के थे ।
प्रेम के सिलसिले थे ।।
फिक्र कल की नहीं थी ।
बात सबकी सही थी ।।
वो नदी वो कुये
सब मुसाफिर हुये
स्वप्न में सो गए हम ।
अब कहाँ खो गए हम।।
अब कहाँ दादी नानी।
सुनाती हैं कहानी।।
खेत खलिहान प्यारे।
ढेर फसलों के न्यारे।।
साथ सब खेलते
दुःख सुख झेलते
हँसके फिर रो गए हम ।
अब कहाँ खो गए हम।।
– सतीश शर्मा, नरसिंहपुर
मध्यप्रदेश