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21 Feb 2017 · 4 min read

क्या सीत्कार से पैदा हुए चीत्कार का नाम हिंदीग़ज़ल है?

ग़ज़ल हिन्दी या उर्दू, किसी में भी लिखी जाये, लेकिन अपने शास्त्रीय सरोकारों के साथ लिखी जाये। ग़ज़ल के ग़ज़लपन को समाप्त कर ग़ज़लें न तो कही जा सकतीं हैं, न लिखी जा सकती हैं। इसे हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ग़ज़ल के नियमों, उपनियमों की हत्या कर हिंदी में ग़ज़ल को प्राणवान बनाये जाने का कथित सुकर्म आज युद्धस्तर पर जारी है। काव्य-कृति ‘सीप में संमदर’ भी एक ऐसी कृति है जिसमें शिल्पगत कमजोरियों को ग़ज़ल की खूबी बताकर ‘हिंदीग़ज़ल’ घोषित किया है। इस ग़ज़ल संग्रह के रचयिता ग़ज़ल के क्षेत्र के ख्याति प्राप्त ग़ज़लकार डॉ. रामसनेहीलाल ‘यायावर’ हैं।
इस संग्रह की भाषा, शिल्प और कथ्यगत कमजोरियों को पुष्ट करते हुए संग्रह की भूमिका में डॉ. उर्मिलेश लिखते हैं कि-‘डॉ. यायावर ने उर्दू ग़ज़ल के पारंपरिक मिथक को तोड़ते हुए अलग हटकर काम किया है। मसलन, उर्दू ग़ज़ल में हर शे’र स्वतंत्रा सत्ता रखता है, लेकिन डॉ. यायावर की अधिसंख्यक ग़ज़लों के शे’र एक ही विषय को आगे बढ़ाते हैं।…डॉ. यायावर की ज्यादातर ग़ज़लें मात्रिक छंद में लिखी गयी हैं। उर्दू में ग़ज़लें कही जाती हैं। डॉ. यायावर ने ग़ज़लें लिखी हैं। इस प्रक्रिया में उनका गीतकार-रूप परोक्ष रूप से हावी रहा है।’’
डॉ. उर्मिलेश के तथ्यों की रोशनी में यदि इन कथित ग़ज़लों का मूल्यांकन करें तो ग़ज़लों से ग़ज़ल का प्राण-तत्त्व कथ्य [ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ] तो गायब है ही, ढाँचे [ शिल्प ] की पहचान वाली वे विशेषताएँ भी लुप्त हैं , जिनसे ग़ज़ल का ग़ज़लपन पहचाना जा सकता है। पारंपरिक मिथक को इस कदर तोड़ा गया है कि ग़ज़ल की मुख्य विशेषता-‘हर शे’र के कथ्य की स्वतंत्र सत्ता’ को भी तहस-नहस कर डाला गया है। गीत-शैली में लिखी गयीं इन कथित ग़ज़लों में ग़ज़ल की तो बात छोडि़ए, ग़ज़लांश कितना है, यह भी शंका की गिरप्फत में है।
प्रथम ग़ज़ल के मतला-‘कुछ धरती कुछ अम्बर बाबा, माया और मछन्दर बाबा’ के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाह रहा है, बिल्कुल अस्पष्ट है। भाई ‘धरती, अंबर, माया और मछंदर हैं तो हैं, इसमें बाबा क्या कर सकते हैं?
ग़ज़ल की एक विशेषता और होती है-उसका बह्र-बद्ध होना। डॉ. उर्मिलेश के मतानुसार तो यह विशेषता भी इस ग़ज़लों से लुप्त है क्योंकि ये मात्रिक छंदों में ‘कही नहीं, ‘लिखी गयी’ हैं। क्या ग़ज़ल ‘कहने’ के स्थान पर ‘लिखने’ से उर्दू ग़ज़ल के स्थान पर हिंदी ग़ज़ल हो जाती है? हिंदी में ग़ज़ल के सिद्दांतों की ये कैसी जलती हुई दीपक-बाती है जो ग़ज़ल के नाम पर ग़ज़ल का घर जलाती है।
ग़ज़ल इस तर्क के साथ कि-‘‘भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में इश्क ही हकीकत नहीं, कुछ और भी है..’’ [ डॉ. रामनिवास शर्मा ‘अधीर’, सीप में समंदर, पृ.6 ], यदि नयी हकीकत-‘‘व्यवस्था के ठेकेदारों के विरुद्ध कलमबंद बयान [ सीप में समंदर, डॉ. यायावर ] से रु-ब-रू हो सकती है तो इसी संग्रह के पृ. 26 पर प्रकाशित ग़ज़ल का ‘प्रेमिका को बाँहों में भरने का ‘जोश’, कौन-से आक्रोश की हकीकत या अभिव्यक्ति है? ‘होश में हैं फिर भी पैमाना हमारा क्यों नहीं/ हम हैं, साकी है, ये मयखाना हमारा क्यों नहीं है?’ के माध्यम से डॉ. यायावर आखिर कहना क्या चाहते हैं? क्या मयखाने में बैठकर शराब के जाम पर जाम गले में उतारते हुए छैनी-हथोड़े की बात करना वैचारिक मैथुन के अतिरिक्त किसी और रूप में स्वीकृत किया जा सकता है? प्रेमिका को बाँहों में भरकर व्यवस्था के विरुद्ध की गयी तलवारबाजी क्या एक साथ दो-दो मोर्चों पर सफल हो सकती है? क्या सीत्कार से पैदा हुए इस नकली चीत्कार का ही नाम हिंदीग़ज़ल है? ग़ज़ल से उसकी मूल आत्मा उसके शिल्प अर्थात् उसकी काया को भी क्षत-विक्षत करके हिंदीग़ज़ल को बनाना है तो ऐसी काया पर आत्ममुग्ध हिंदी के ग़ज़लकारों या इसके पक्षधरों के समक्ष कोई तर्क रखना ही बेमानी है।
‘सीप में समंदर’ ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें चीख-चीख कर इस बात का प्रमाण देती हैं कि इनमें ग़ज़ल का ग़ज़लपन सिसक रहा है। यथा-पृ. 30 पर ग़ज़ल के मतले से काफिया ही गायब है तो अन्य काफिये ‘मौन’ को ‘मौन’ और ‘कौन’ को ‘कौन’ से मिलते हुए हाँफते हुए नजर आते हैं। ग़ज़ल में काफियों की निकृष्ट व्यवस्था देखिए-
या तो संवादों में विष है, या फिर केवल मौन है,
प्रश्नाकुल है आज समय का यक्ष, युध्ष्ठिर मौन है।
या तो जब-जब सुने आपने या निर्जन में दुहराये,
वरना अपने इन गीतों को सुनने वाला कौन है?
कातिल बोला है चिल्लाकर किया हुआ दुहराऊँगा,
डरकर सहमे उड़े कबूतर किंतु अदालत मौन है।
कोई कमरे में खिड़की से चुपके-चुपके कूद गया,
कुर्सी पूछ रही है यारो! दरवाजे पर कौन है।
पृ. 95 पर ‘श्रीमान’ की तुक ‘प्राण’, पृ. 71 पर ‘भूमिष्ठ की तुक ‘उच्छिष्ट’, पृ.57 पर ‘मादा’ की तुक ‘राधा’ या ‘आधा’, पृ.50 पर ‘सुलाया’ की तुक ‘लाया’, पृ. 47 पर ‘जलता’ की तुक ‘घुलता’, पृ.39 पर ‘तमाशा’ की तुक ‘भाषा’ या ‘आसा’ आदि यदि उत्कृष्ट काफियों के नमूने बन सकते हैं तो हिंदी ग़ज़ल के ऐसे समर्थक ग़ज़ल के नाम पर जितना चाहें उतना तन सकते हैं। जहाँ तक इन ग़ज़लों में बह्र के स्थान पर मात्रिक छंदों के प्रयोग का सवाल है तो इससे भले ही ग़ज़ल के ग़ज़लपन का एक और अंग भंग और बदरंग होता हो, किंतु इन ग़ज़लों में मात्रिक छंदों का प्रयोग भी शुद्ध हुआ हो, यह भी संदिग्ध है। पृ. 73 पर प्रकाशित ग़ज़ल के दूसरे शे’र के दूसरे मिसरे के साथ-साथ ऐसी कई अन्य ग़ज़लें भी इस तथ्य की गवाह हैं कि हिंदी-छंदों के नाम पर भी एक रोग का योग है। अस्तु ‘सीप में समंदर’ ग़ज़ल संग्रह भले ही अपने कथ्यात्मक ओज के लिये प्रशंसनीय है किंतु इन ग़ज़लों में ग़ज़लपन कितना है, इसे लेकर कुहरा घना है।
———————————————————
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
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