क्या लिखूँ
आज सोचा कुछ लिखूं ! पर क्या?
उन सूखे पत्तों पर लिखूं ?
जो बसंत में नवपतियाँ थी…
और आज जीर्ण अवस्था में सुषुप्त पड़ी
आत्मदाह की प्रतीक्षा में है…
उन फूलों पर लिखूं ?
जो कल तक मंदिर मस्जिद में सजे थे….
बड़े बड़े पदाधिकारियों के गले में
माला बनकर सुशोभित थे..
आज गंदी नालियों में डूबे और पैरों तले कुचले जा रहे हैं..
या उन हाथ फैलाते बच्चों पर लिखूं ?
जो पल पल भूख के लिए लालायित हैं..
मजबूर हैं हाथ फैलाने के लिए …
अपने साथ परिवार का भी पेट भरेगा
इस आस पर आंखें रोज हर चौखट पर भूख ढूंढती हैं।
क्या उन असहाय बुजुर्गों पर लिखूं ?
जिनकी संतान होने छोड़कर
शहरों का सुख भोग रहे हैं…
सूख गये आँशु आंखों से
आंखें पथरा गई उनकी राह देखकर ..
उस नन्ही कन्या पर लिखूं ?
जिसने अभी तक यह संसार ही नहीं देखा..
और खुद के मारे जाने का षड्यंत्र
प्रतिदिन गर्भ में सुन रही है ….
क्या उन निरीह जीवों पर लिखूं ?
जो राक्षस प्रवृत्ति के इंसानों का
हर शाम निवाला बन जाते हैं
एक पल के लिए भी उन्हें दया नही आती,
या उन राजनैतिक लोगों पर लिखूं ?
जो आशावादी जनता की पीठ पर
हर दिन स्वार्थ की रोटी सेकते हैं…
लड़ाते हैं हमें जात धर्म में बांट कर
बहुत मुश्किल है लिखना …..