क्या मैं… क्या मैं…
क्या मैं…!!
जग में केवल सहनें के लिए पैदा हुई हूँ।
क्या मैं…!!
तुम पुरुषों से कुछ कम लेकर जन्मी हूँ।
क्या औरत होना भी मेरा अपराध है ?
मेरी सर्जन में भी तो ब्रहम्मा का ही हाथ है।
मैं भाइयों की तरह अद्धयन ना कर पाई।।
समाज की सारी ही बुराई बस मुझ पर ही है आयी।।
करुणा,प्रेम पिता जी का,
कभी ना पाया भाइयों जैसा !!
क्यों लगता था माँ बाप को,
मेरा वजूद बोझ के जैसा !!
हे ईश्वर, मैं तो कृति हूँ तेरी ही फिर क्यों इतना मेरा निरादर होता !!
दे देते थोड़ी सी बुद्धि मानव को ताकि मेरा भी थोड़ा आदर होता !!
ना जानें कितने रूप निर्मित करके ब्रह्मा नें औरत का सृजन किया है।।
उन रूपों में लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, काली इत्यादि में ईश्वर नें स्वयं का दर्शन दिया है।।
हे ईश्वर,कुछ प्रश्न है…
पूँछने जो है मेरे हृदय के अंदर !!
क्या औरत रह गयी है…
बस भोग की वस्तु बनकर ?
क्या पुरुषों के समाज में !!
वह खुलकर कभी ना रह पाएगी ?
क्या मेरे भोग की परंपरा !!
मेरे जीवन पर्यन्त चलती जाएगी ?
प्रभु यह तेरी कैसी सृष्टि है?
जो सीता मईया पर भी कलंक लगाने से ना चूकी है!!
देना तो होगा ईश्वर तुमको इसका उत्तर।
देखती हूँ मैं भी कब तक रहोगे तुम यूँ ही निरुत्तर ?
हां कभी-कभी यह स्वार्थी जग मुझको भी देवी का
दर्जा देता है।।
दिखावे की ख़ातिर मेरे आस्तित्व को सबसे ऊपर
ऊंचा रखता है।।
नयनों से मेरे नीर की धारा
बहती है !!
ज़िन्दगी मेरी चुपचाप ही ये सब
सहती है !!
तुम सुध ना लोगे मेरी प्रभु….
तो किसी मैं अपनी व्यथा सुनाऊँगी ?
क्या मैं ऐसे ही जीवन को…
जीते-जीते मर जाऊंगी ?
मेरा भी चंचल मन करता है पक्षी के जैसे दूर गगन में
उड़ आऊं।।
अपनी जीवन की मैं भी स्वयं स्वामिनी
बन जाऊं।।
पुरुष समाज़ से मैं कहती हूँ बिन औरत के सृष्टि
अकल्पनीय है !!
ना देना स्त्री को सम्मान,सत्कार कृत बहुत
निन्दनीय है !!
ताज मोहम्मद
लखनऊ