क्या मंद मंद मुस्कराते हो
क्या मंद मंद मुस्कराते हो
अंदर ही अंदर मरते जाते हो
अब खुल के तुम भी हँस लिया करो
ऐसे क्यूँ भला शर्माते हो तुम
किस बात का डर भला तुमको
किस चीज़ का करते हो शिकवा गिला
नसीब में जितना लिखा मिला
खाते और कमाते हो तुम
जो कल बोया वो काटा अब
और आज का बोया बढ़ेगा कल
बहने दो समय की धार को तुम
क्यूँ गीत दुखों के गाते हो तुम
राजा भी तुम्ही और रंक भी तुम्ही
कायर भी तुम और दबंग भी तुम्ही
सब खेल मनों का किस्मत का
फिर काहे तुम घबराते हो तुम
क्षण भंगुर हर चीज़ है यहाँ
नश्वर हर एक चीज़ है यहाँ
पा भी लो तो क्या हो जाए
मिट्टी पर क्यों इतराते हो तुम
अनिल “आदर्श”