क्या बोलोगी
शीर्षक – क्या बोलोगी?
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इक रोज तिरंगे में सजकर, जब आऊ तुम क्या बोलोगी?
मै अर्थी पर लेटा होऊ, सच बोलो तुम क्या बोलोगी?
मेरे आने की खबर सुनो,
तो, खन खन चूड़ी खनकाना l
फिर मुझे रिझाने की खातिर
सजना धजना फिर मुस्काना ll
फिर पास बैठ आईने के मन ही मन तुम क्या बोलोगी?
इक रोज तिरंगे में सजकर, जब आऊ तुम क्या बोलोगी?
मै भी तो मुजरिम तेरा हूँ
इक पल भी प्यार न दे पाया l
लेकिन क्या करता सजनी मैं
बेटा भारत माँ का जाया ll
शीश चड़ाकर भारत माँ को जब आऊँ तुम क्या बोलोगी?
एक रोज तिरंगे में सजकर, जब आऊ तुम क्या बोलोगी?
सुन आवाज ‘सुनो सजनी’ की
इत उत तुमने देखा होगा l
फिर मुझको पास न पाकर तुम
सोचा सपना देखा होगा ll
मेरे आने के सपने को, देख रात तुम क्या बोलोगी?
एक रोज तिरंगे में सजकर, जब आऊ तुम क्या बोलोगी?
सुन प्रिये! तेरी आँख के मोती
झर झर पतझर से टपकेगे l
तू कैसे धीरज धर पायेगी
जब दिल मिलने को धड़केगें ।।
फिर यूं देर तक सोता देख, झल्लाकर तुम क्या बोलोगी?
इक रोज तिरंगे में सजकर, जब आऊ तुम क्या बोलोगी?
मेरी अर्थी को कांधे पर
ले तुम आगे आगे चलना l
तुम वीर सिपाही की पत्नी
झांसी की रानी सी ढलना ll
जीवन के इस महायुद्ध में, हार जीत पर क्या बोलोगी?
एक रोज तिरंगे में सजकर, जब आऊ तुम क्या बोलोगी?
राघव दुवे ‘रघु’