क्या पता वाकई मैं मर जाऊं
जब मेरे होंटो से एक
शब्द ना निकले और
मैं तुम्हे एक शब्द भी
कहने में कतराऊं
तो समझना मैं किसी
बात से सहम गया हूँ
मगर
मेरी इस सहमा-सहमी में
तुम मेरा अहम मत ढूंढना
पता नहीं किस ठेस से मर
मैं जीते जी मर जाऊं
वक्त रहते मैं सम्भाल
पाऊँ खुद को बस
इतना सा वक़्त दे देना
तुम जो जल्दबाजी में
अगर चले गए कभी
तो क्या पता वाकई
मैं मर जाऊं
©अंकित कुमार पांचाल