क्या तुम नहीं जानते
क्या तुम नहीं जानते
क्या तुम नहीं जानते
मछलियों से छीना गया है जल
जला दी गई है पूरी वितस्ता
तट पर हो रहा है तांडव नृत्य
मसले जाते है पैरों तले
निरीह और निर्दोष नर्गिस
उनके अस्तित्व का मिट रहा है नामोनिशान
तितलियाँ रो रहीं है ज़ार-ज़ार
उनके रंज में सो गये है भौंरे तमाम
अब कब तलक वो उठेंगे नींद से ?
जब भी कभी मैं सो जाऊं गफलत में
आकर तुम धीरे से कहना तितलियाँ .
क्या तुम नहीं जानते
गट रही है संख्या चारों ओर
किसी के माथे पर मड दिया गया
आज़ादी का पोस्टर
और किसी की पीठ पर
खरोंचा गया आज़ादी का नारा
जिहादी भी तो मिलाया गया
पूर्वजों की निस्बत से
गर्म खून में भर दिया गया
दहकता हुआ क्षेत्रीयता विष
लेखकों ने आदिकाल में किया प्रवेश
रुचियों के आधार पर लिखते है वो
जब भी कभी मैं आश्रय लूँ दरबार का
आकर तुम धीरे से कहना दरबारी.
क्या तुम नहीं जानते
बच्चों की नोची गयी है आँखें
और बुजुर्गों की लाठी
बेटियों ने सीख लिया है खड़ा होना
वो बन गईं है आँखें
बच्चों की बुजुर्गों की
कुछ चिराग जल रहे है अभी भी
डिजिटल हवाओं में
बेईमानी में जब भी कोई चिराग बुझे
जन समुद्र की लहरों से तब शोले उठे
शोलों से कब तक मिटेगा अंधियारा
जब भी कभी चमकते चिराग बुझने लगे
आकर तुम धीरे से कहना बेईमान.
क्या तुम नहीं जानते
भक्ति की बदल गई है परिभाषा
और परिभाषित होने लगे है भक्त स्वयं ही
बेचने लगी है मर्यादा, लज्जा…
और पूजा किसी ने बापू को और किसी ने गोडसे को
लोकतंत्र हो गया है क्षणयंत्र
मानवता को कर लिया गया है संगसार
केवल वोट और नोट बना है विश्वास
जब भी कभी मैं हो जाऊं पाखंडी
आकर तुम धीरे से कहना मानवता.
क्या तुम नहीं जानते
प्रेम में भी मिल गया है पाखण्ड
पहले जाति, धर्म और क्षेत्र बनते थे
विछोह के कारण
अब पाली जाती है बेड-बकरियाँ
चराया जाता है उनको अनेक प्रकार से
शिक्षा, स्वास्थ और यश से कर दिया जाता है संपन्न
निश्चित समय पर निश्चित मूल्य पर
हड़प जाता है कसाई
खट्टे-मीठे अनुराग की बीती सदियाँ
जब भी कभी मैं करने लगूं मनमानी
आकर तुम धीरे से कहना कसाई.
डॉ. मुदस्सिर अहमद भट्ट